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१३८ :: परमसखा मृत्यु दत्तक दांत बिठाये और काम चला।
आजकल के जमाने में अक्सर सबों की नजर छोटी होती है। सब लोग करते हैं, वैसे हमने भी चश्मे पहने । कान की शक्ति क्षीण हुई तो सभा-समितियों में जाना कम कर दिया और शहर में रहते हुए भी मोटरों की कर्कश आवाजों से बच गए, इसका आनन्द माना। और अब कान को मदद में एक कणिका आई है, उसकी सेवा लेता हूं। शरीर की शक्ति कम हुई तो भी यात्रा अभी मैंने नहीं छोड़ी है। सेवा का आनन्द मिलता है, सज्जनों का सहवास मिलता है, सृष्टि के बिस्तार में भगवान के दर्शन होते हैं और शरीर और मन की ताजगी कायम रही है। शरीर चलता है, तबतक सफर नहीं छोड़गा, और जिस तेजी से मैं सफर करता हूं, उतनी तेजी से न तो बुढ़ापा दौड़ सकता है, न मौत ही आक्रमण कर सकती है। इसलिए आत्मविश्वास हो गया है कि चलता रहूं, तबतक शरीर भी चलेगा।
और जिन्दगी में इतना घूमा हूं, इतना देखा है, इतना सोचा है कि बैठकर उसकी जुगाली करूं तो भी पच्चीसपचास वर्ष निकल जायंगे।
और सबसे बड़ी बात यह है कि जिस स्वराज्य के लिए जीना था, वह स्वराज्य मिल गया। अब देश में देश का स्वर्ग बनाना या नरक, हम लोगों के हाथ की बात हुई। देश की आज की हालत देखकर दुःख होता है जरूर, लेकिन मन में निराशा नहीं है। हजारों वर्ष की सामाजिक और सांस्कृतिक गलतियों को कीमत चुकानी ही पड़ेगी। लेकिन हम परावलम्बिता से मुक्त हैं, यह लाभ कम नहीं है। ___जो बातें बुढ़ापे के कारण मुझसे अब नहीं हो सकतीं, उनकी चिन्ता भी मैंने छोड़ दी है । नाहक की चिन्ता करके अपने को