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ध्यानस्तव
तपोयथास्वकालाभ्यां कर्म यद् भुक्तशक्तिकम् ।
नश्यत् तन्निर्जराभिख्यं चेतनाचेतनात्मकम् ॥ ध्या. स्त. ५४. ७ इसी प्रकार पुण्य, पाप, बन्ध व मोक्ष के स्वरूप का भी कथन उक्त दोनों ग्रन्थों में प्रायः समान रूप से किया गया है।
उक्त दोनों ग्रन्थों में पदार्थविषयक नौ भेदों के क्रम में अवश्य कुछ विशेषता रही है। द्रव्यसंग्रह में जहां तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार जीव व अजीव के भेदभूत प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों को पुण्य और पाप के साथ नौ पदार्थ रूप निर्दिष्ट किया गया है वहां ध्यानस्तव में पंचास्तिकाय व समयसार' आदि के अनुसार जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इस क्रम से उक्त नौ पदार्थों का निर्देश किया गया है।
८ द्रव्यसंग्रह के समान ध्यानस्तव में पुण्य और पाप को भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। ध्यानस्तव में निर्दिष्ट पुण्य-पाप का लक्षण पंचास्तिकाय से भी अधिक समानता रखता है।
बन्ध व संवर के द्रव्य व भाव रूप इन दो भेदों का निर्देश द्रव्यसंग्रह से पूर्व कुछ अन्य ग्रन्थों में भी किया गया है, पर वह समस्त रूप से जिस प्रकार द्रव्यसंग्रह में पाया जाता है उस प्रकार से वह अन्य ग्रन्थों में नहीं उपलब्ध होता है। इससे यही प्रतीत होता है कि ध्यानस्तवकार ने उक्त सभी प्रास्रव आदि के उन दो भेदों की प्ररूपणा द्रव्यसंग्रह के आधार से ही की है।
द्रब्यसंग्रह में निश्चय सम्यक्चारित्र के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि सम्यग्ज्ञानी जीव के संसार के कारणभूत मानव के नष्ट करने के लिए जो बाह्य और अभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध होता है वह सम्यक्चारित्र कहलाता है।
१. द्र. सं.-बन्ध ३२, मोक्ष ३७; ध्या. स्त.-बन्ध ५५, मोक्ष ५६. २. त. सू. १-४. ३. पासव बंधण संवर णिज्जर-मोक्खा सपुण्ण-पावा जे ।
जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो ॥ द्र. सं. २८. ४. जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसि ।
संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ॥ पं. का. १०८. ५. समयसार १५.
६. ध्या. स्त. ४०. ७. द्र. सं. ३८% घ्या. स्त. ५०-५१,
८. पं. का. १३२. ६. जैसे बन्ध के दो भेद-(क) बन्धो द्विविधो द्रव्यबन्धो भावबन्धश्चेति । तत्र द्रव्यबन्धः कर्म-नोकर्म
परिणतः पूदगलद्रव्यविषयः। तत्कृतः क्रोधादिपरिणामवशीकृतो भावबन्धः। त. बा. २,१०,२.; (ख) अयमात्मा साकार-निराकारपरिच्छेदात्मकत्वात् परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण भावेन पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यत एव । योऽयमपरागः स खलू स्निग्धरुक्षस्थानीयो भावबन्धः । अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिकं कर्म बध्यत एव, इत्येष भावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्धः । प्र. सा. अमृत. वृ. २.८४.; (ग) पं. का. जय. वृ. १०८.; (घ) आचा. सा. ३-३७. संवर के दो भेद--(क) संसारनिमित्तक्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः । तन्निरोधे तत्पूर्वककर्मपुद्गलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः । स. सि. ९-१.; त. वा. ६, १, ८-६.; (ख) ह. पु. ५८-३००.; (ग) योगसार
प्राभृत ५-२. १०. तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि आदि अन्य टीकानों के समान भास्करनन्दी ने स्वयं अपनी सुखबोधा
नामक वत्ति में भी उनकी उस रूप में प्ररूपणा नहीं की है। ११. द्रव्य सं. ४६.