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________________ प्रस्तावना रूप ध्यान जड़ता अथवा तुच्छता स्वरूप नहीं है, उसका आधार तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक का वह प्रसंग रहा है। १२ तत्त्वानशासन-१ ध्यानस्तव में ध्यान के लक्षण के पूर्व यह कहा गया है कि समाधि में स्थित योगी को यदि आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं प्रतिभासित होती है तो मोहस्वभाव होने के कारण उसके ध्यान को यथार्थ ध्यान नहीं कहा जा सकता है (५)। इसका आधार तत्त्वानुशासन का निम्न श्लोक रहा है जो शब्द और अर्थ दोनों से ही समान है समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नानुभूयते । तवा न तस्य तद् ध्यानं मूर्छावन्मोह एव सः॥१६॥ २ ध्यानस्तव में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि चिन्ता के निरोधस्वरूप वह ध्यान न तो जडतारूप है और न तुच्छ अभाव स्वरूप भी है, किन्तु वह ज्ञानस्वरूप प्रात्मा के संवेदनरूप है (६-७)। ध्यानस्तव का यह कथन मूलतः तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक से प्रभावित रहा है। साथ ही वह तत्त्वानुशासन के निम्न श्लोकों से भी प्रभावित है। चिन्ताभावो न जैनानां तुच्छो मिथ्यावृशामिव । दुग्बोध-साम्यरूपस्य स्वस्य संवेदनं हि सः॥ १६०॥ स्वरूपावस्थितिः पुंसस्तदा प्रक्षीणकर्मणः। 'नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥२३४॥ ३ ध्यानस्तव में विकल्परूप से पांच प्रकार धर्म के स्वरूप को दिखलाते हुए उससे अनपेत (सम्बद्ध) ध्यान को धर्म्यध्यान कहा गया है (१२-१५)। यह अभिप्राय तत्त्वानुशासन के इन श्लोकों में निहित है सवृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदः। तस्माद्यदनपेतं हि षम्यं तद् ध्यानमभ्यधुः ॥५१॥ मात्मनः परिणामो यो मोहक्षोभविवजितः। स च धर्मोऽनपेतं यत्तस्माद् धर्म्यमित्यपि ॥५२॥ शुन्यीभवविदं विश्वं स्वरूपेण धृतं यतः । तस्माद्वस्तुस्वरूपं हि प्राहुधर्म महर्षयः ॥५॥ ततोऽनपेतं यज्ज्ञानं तद् घHध्यानमिष्यते। धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यमित्यापेऽप्यभिधानतः ॥५४॥ यश्चोत्तमक्षमादिः स्याद् धर्मो वशतयः परः। ततोऽनपेतं यद् ध्यानं तद् वा धर्म्यमितीरितम् ॥५५॥ ४ उक्त दोनों ग्रन्थों में निश्चय और व्यवहार नयों का स्वरूप समान रूप में इस प्रकार कहा गया है अभिन्नकर्तु-कर्मादिविषयो निश्चयो नयः। व्यवहारनयो भिन्नकर्त-कर्मादिगोचरः॥ तत्त्वा. २९. अभिन्नकर्तृ-कर्मादिगोचरो निश्चयोऽथवा। व्यवहारः पुनदेव! निदिष्टस्तद्विलक्षणः॥ ध्या. स्त. ७१. १.देखिये ध्यानस्तव श्लोक ६ का विवेचन, पृ. ५.; यह अभिप्राय तत्त्वानुशासन में भी श्लोक १६० व २३४ के द्वारा प्रगट किया गया है। २. त. श्लो. ६-२७, ५-६, पृ. ४९८-६६. .३. यह उत्तरार्ध भाग सोमदेव विरचित उपासकाध्ययन (११३) में जैसा का तैसा उपलब्ध होता है।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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