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ध्यानस्तव
जो इस प्रकार से स्तुति की है वह ध्यान के अनुराग वश ही की है । यह कथन स्वयम्भूस्तोत्र के निम्न श्लोकों से प्रभावित है
गुणस्तोकं सदुल्लङ्घ्य तद्द्बहुत्वकथा स्तुतिः । श्रानन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥ ८६. तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीर्तिर्नस्ततो ब्रूयाम किंचन ।। ८७.
( इसका श्लोक १५वां और ७०वां भी द्रष्टव्य है )
ध्यानस्तव के ९४ व ९६ वें श्लोक में जो यह कहा गया है कि हे देव ! आप रुष्ट या सन्तुष्ट होकर यद्यपि किसी का कुछ भी बुरा भला नहीं करते हैं, फिर भी मनुष्य एकाग्रचित्त होकर आपका ध्यान करने से समुचित फल को प्राप्त करता है, उसका आधार स्वयम्भूस्तोत्र के ये श्लोक रहे हैं-न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।। ५७. सुहृत्त्वयि श्री सुभगत्वमश्नुते द्विषन् त्वयि प्रत्ययवत् प्रलीयते । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥६६.
७ युक्त्यनुशासन - ध्यानस्तव के पूर्वोक्त ९६ वें श्लोक का अभिप्राय युक्त्यनुशासन के भी श्लोक २-३ के समान है ।
८ सर्वार्थसिद्धि - ध्यानस्तव ( ६ ) में नामा अर्थों का श्रालम्बन करने वाली चिन्ता के एक अर्थ में नियंत्रित करने को जो ध्यान का लक्षण कहा गया है वह सर्वार्थसिद्धि (१-२७) में निर्दिष्ट ध्यान के इस लक्षण से प्रभावित है - नानार्थावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्नये नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते ।
ध्यानस्तव के ९१वें श्लोक में कर्मादान की निमित्तभूत क्रियाओं के निरोध को जो सम्यक् चारित्र कहा गया है वह सर्वार्थसिद्धि में निर्दिष्ट (१- १) चारित्र के इस लक्षण से प्रभावित है - संसारकारणनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम् ।
श्रागे ध्यानस्तव के 8वें श्लोक में औषधि का उदाहरण देते हुए सम्यग्दर्शनादि तीन को समस्त रूप में मोक्ष का कारण कहा गया है । यह अभिप्राय सर्वार्थसिद्धि सूत्र १-१ की उत्थानिका में इस प्रकार व्यक्त किया गया है - XXX व्याध्यभिभूतस्य तद्विनिवृत्त्युपाय भूतभेषज विषय व्यस्तज्ञानादिसाधनत्वाभाववद् व्यस्तं ज्ञानादिर्मोक्षप्राप्त्युपायो न भवति । कि तर्हि ? तत्त्रितयं समुदितमिति ।
६ समाधिशतक - ध्यानस्तव ( ३६ ) में जो बहिरात्मा के स्वरूप का निर्देश किया गया है वह समाधिशतक के इस लक्षण से प्रभावित है - बहिरात्मा शरीरादी जातात्मभ्रान्तिः XXX (५) । यही भाव समाधिशतक के ७वें व ५४वें श्लोक में भी प्रगट किया गया है ।
१० तत्त्वार्थवार्तिक-- ध्यानस्तव ( १५-१६ ) में धर्म्यध्यान के स्वामियों का निर्देश करते हुए उसका सद्भाव असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर श्रप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थानों में प्रगट किया गया है । इसका श्राधार तत्त्वार्थवार्तिक का वह धर्मध्यान के स्वामिविषयक सन्दर्भ (६, ३६, १३-१५) रहा है' । ११ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक — ध्यानस्तव श्लोक ६ में जो यह कहा गया है कि एकाग्रचिन्तानिरोध
तत्त्वानुशासन (४६) और ज्ञानार्णव (२८, पृ. २८२) में भी जो निर्देश किया गया है उसका आधार भी मूलतः प्रतीत होता है । तत्त्वानुशासन के ४६ वें श्लोक में सूचना भी कर दी गई है।
१. श्रादिपुराण (२१, ५५ - ५६ ) इसी प्रकार से उस धर्मध्यान के स्वामियों का तत्त्वार्थवार्तिक का वही प्रकरण रहा है, ऐसा गृहीत 'तत्वार्थे' पद के द्वारा सम्भवतः उसकी