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ध्यानशतक
और प्रदेश के भेद से चार प्रकार के शुभ-अशुभ कर्मों के विपाक का स्मरण करना, इसका नाम विपाकविचय है। इस प्रसंग में यहां ध्यानशतक की ५१वीं गाथा उद्धृत की गई है। इसके साथ ही वहां मूलाचार की भी एक गाथा उद्धृत की गई है।
घवला में संस्थानविचय धर्मध्यान के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि तीनों लोकों के प्राकार, प्रमाण एवं उनमें वर्तमान जीवों की आयु आदि का विचार करना; यह संस्थानविचय धर्मध्यान कहलाता है । इस प्रसंग में वहां ध्यानशतक की ५ (५२-५६) गाथायें उद्धृत की गई हैं। इसके आगे वहां एक गाथा ऐसी है जो क्रम से ध्यानशतक की ५८वीं और ५७वीं गाथाओं के उत्तरार्थों के योग से निष्पन्न हुई है। तदनन्तर इसी प्रसंग में वहां ध्यानशतक की ६२, ६५, ३-४, ६६-६८, ६३ और १०२ ये गाथायें क्रम से उद्धृत की गई हैं।
अन्त में धवला में जो शुक्लध्यान की प्ररूपणा की गई है वह प्रायः तत्त्वार्थसूत्र और ध्यानशतक के ही समान है। इस प्रसंग में यहां ध्यानशतक की ६९, १०१, १००, ६०-६२, १०३, १०४ (पू.), ७५ और ७१.७२ ये गाथायें कम से उद्धृत की गई हैं। साथ ही वहां भगवती आराधना की भी १८८०-८८ गाथायें उद्धृत की गई हैं। दोनों में कुछ पाठभेद
इस प्रकार धवला (पूस्तक १३) में जो ध्यानशतक की लगभग ४६-४७ गाथायें उद्धृत की गई हैं उनमें ऐसे कुछ पाठभेद भी हैं, जिनके कारण वहां कुछ गाथाओं का अनुवाद भी असंगत हो गया है। यहां हम 'होइ-होज्ज, भदोव-भूगोव, ट्रियो-ठियो, लाहं-लाभं' ऐसे कुछ पाठभेदों को छोड़कर अन्य जो महत्त्वपूर्ण पाठभेद उक्त दोनों ग्रन्थों में रहे हैं, और जिनके कारण अर्थभेद होना भी सम्भव है, उनकी एक तालिका दे रहे हैं। सम्भव है उससे पाठकों को कुछ लाभ हो सके। इसके अतिरिक्त भविष्य में यदि धवला पु. १३ के द्वितीय संस्करण की आवश्यकता हुई तो उसमें तदनुसार कुछ संशोधन भी किया जा सकता है।
१. धवला में उसकी क्रमिकसंख्या ४१ है (पृ. ७२) । २. मूलाचार ५-२०४.; यह गाथा भगवती पाराधना (१७१३) में भी पायी जाती है । ३. धवला में इनकी क्रमिकसंख्या ४३-४७ (पृ. ७३) है। ४. धवला में उसकी क्रमिकसंख्या ४८ (पृ. ७३) है। ५. धवला में उनकी क्रमिकसंख्या ४६, ५०, ५१-५२, ५३-५५, ५६, ५७, (पृ. ७६-७७) है। ६. धवला पु. १३, पृ. ७७-८८. ७. धवला में उनकी क्रमिकसंख्या इस प्रकार है-६४, ६५, ६६, ६७-६६, ७०, ७१, ७४, ७५-७६. ८. धवला में उनकी क्रमिकसंख्या इस प्रकार है-५८-६३, ७२-७४. ६. जैसे -पृ. ६७, गा. २१ व २२; पृ. ६८ गा. २४ व २७; पृ. ७१ गा. ३५-३७ । पृ. ७३, गा. ४८ का
पाठभेद सम्भवतः प्रतिलेखक की असावधानी से हुआ है-ध्यानशतक की गा. ५८ और ५७ के क्रमशः उत्तरार्थों के मेल से यह गाथा बनी है। इस अवस्था में वह प्रकरण से सर्वथा असम्बद्ध हो गई है। ध्यानशतक के अन्तर्गत गा. ५६-५७ में संसार-समुद्र का स्वरूप दिखलाया गया है तथा आगे वहां गा. ५८-५९ में उक्त संसार-समुद्र से पार करा देने वाली नौका का स्वरूप प्रगट किया गया है। वहां गा. ५८ के उत्तरार्ध में उपयुक्त 'णाणमयकण्णधारं (ज्ञानरूप कर्णधार से संचालित)', यह विशेषण वहां चारित्ररूप महती नौका का रहा है, वह धवला में हए इस पाठभेद के कारण संसार-समुद्र का विशेषण बन गया है। यह एक वहां सोचनीय असंगति हो गई है।