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ध्यानशतक
स्थिति से युक्त किया जाता है उसका नाम उपक्रम है। इस प्रकार के उपक्रम से युक्त आयु को सोपक्रम और उससे रहित आयु को निरुपक्रम कहा जाता है।
योगसूत्र में भी योग के प्राश्रय से उत्पन्न होने वाली अनेक प्रकार की सिद्धियों का निरूपण करते हुए उस प्रसंग में यह कहा गया है कि सोपक्रम और निरुपक्रम के भेद से कर्म दो प्रकार का है। जो योगी उसके विषय में ध्यान, धारणा और समाधिरूप संयम को करता है कि कौन कर्म शीघ्र विपाक वाला और कौन दीर्घकालीन विपाकवाला है उसके ध्यान की दृढ़ता से अपरान्तज्ञान-शरीर के छूटने का ज्ञान-उत्पन्न होता है कि अमुक देश व काल में शरीर छूट जाने वाला है। यह ज्ञान आध्यात्मिक, प्राधिभौतिक और आधिदैविक रूप तीन प्रकार के अरिष्ट से भी उत्पन्न होता है।
उक्त वोगसूत्र के भाष्य और टीकानों में प्रकृत उपक्रम को स्पष्ट करते हुए ये दो उदाहरण दिये गये हैं-१ जिस प्रकार गीले वस्त्र को फैला देने पर वह शीघ्र ही सूख जाता है उसी प्रकार सोपक्रम कर्म भी कारणकलाप के पाश्रय से शीघ्र विनष्ट हो जाता है। इसके विपरीत जिस प्रकार उक्त वस्त्र को संकुचित रूप में रखने पर वह दीर्घ काल में सूख पाता है यही अवस्था निरुपक्रम कर्म की भी समझना चाहिए। २ जिस प्रकार सूखे वन में छोड़ी गई अग्नि वायु से प्रेरित होकर शीघ्र ही उसे जला देती है तथा इसके विपरीत तृणसमूह में क्रम से छोड़ी गई वही अग्नि उस तृणराशि को दीर्घ काल में जला पाती है उसी प्रकार सोपक्रम और निरुपक्रम कर्म के विषय में भी जानना चाहिए।
ये दोनों उदाहरण तत्त्वार्थाधिगम भाष्य (२-५२) में अपवर्तन के प्रसंग में दिये गये हैं। विशेषता यह है कि वहां प्रथमत: तृणराशि का उदाहरण देकर मध्य में एक गणित का भी उदाहरण दिया गया है और तत्पश्चात् वस्त्र का उदाहरण दिया गया है। गणित का उदाहरण देते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार कोई गणितज्ञ किसी संख्या विशेष को लाने के लिए विवक्षित राशि को गुणकार और भागहार के द्वारा खण्डित करके अपवर्तित करता है उसी प्रकार करणविशेष के आश्रय से कर्मविशेष का भी अववर्तन (ह्रस्वीकरण) होता है। इस प्रकार सोपक्रम और निरुपक्रम का विचार दोनों ही दर्शनों में समानरूप से किया गया है ।
उत्पादावित्रय-जैन दर्शन में द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त सत् माना गया है। उसका अभिप्राय यह है कि जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ उक्त उत्पादादि तीन से सहित है। वस्तू में पूर्व पर्याय को छोड़कर जो नवीन पर्याय उत्पन्न होती है उसका नाम उत्पाद और पूर्व पर्याय के विनाश का नाम व्यय है। इन दोनों के साथ वस्तु में जो अनादि स्वाभाविक परिणाम सदा विद्यमान रहता है उसे ध्रौव्य कहा जाता है। उदाहरणार्थ जब सुवर्णमय कड़े को तोड़कर उसकी सांकल बनवायी जाती है तब सांकल रूप अवस्था का उत्पाद और कड़ेरूप अवस्था का व्यय होता है। इन दोनों के होते हए भी जो उनमें सुवर्णरूपता सदा विद्यमान रहती है, यह उसका ध्रौव्य है। जैन दर्शन का यह एक
तत्रोपक्रमणमपक्रमः प्रत्यासन्नीकरणकारणमुपक्रमशब्दाभिधेयम्, अतिदीर्घकालस्थित्यप्यायर्येन कारणविशेषेणाध्यवसानादिनाऽल्पकालस्थितिकमापद्यते स कारणकलाप उपक्रमः, तेन तादशोपक्रमेण सोपक्रमाण्यनपवर्तनीयान्यायषि भवन्ति । निर्गतोपक्रमाणि निरूपक्रमाण्यध्यवसानादिकारणकलापाभावात् । त. भा. सिद्ध. वृ. २-५१, धवला पु. ६, पृ. ८६ तथा पु. १०, पृ. २३३-३४ व पृ. २३८
भी द्रष्टव्य है। १. स्थाना. अभय. व. ४, २, २६६ पृ. २१०. २. यो. सू. ३-२२. ३. त. सू. ५, २६-३०.