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प्रस्तावना
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एकाग्रचिन्तानिरोध को ध्यान का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। प्रा. अमितगति (प्रथम) विरचित योगसार-प्राभूत में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि प्रात्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त के स्थिर करने वाले साधु के होता है जो उसके कर्मक्षय को करता है।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्यानुसारिणी सिद्धसेन गणि चिरचित टीका में प्रागमोक्त विधि के अनुसार वचन, काय और चित्त के निरोध को ध्यान कहा गया है।
महर्षि पतञ्जलि विरचित योगसूत्र में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि धारणा में जहां चित्त को धारण किया गया है वहीं पर जो प्रत्यय की एकतानता (एकाग्रता) हैविसदृश परिणाम को छोड़कर जिसे धारणा में पालम्वनभूत किया गया है उसी के पालम्बनरूप से जो निरन्तर ज्ञान की उत्पत्ति होती है-उसे ध्यान कहते हैं। योगसूत्र के अनुसार यह यम-नियमादिरूप आठ योगांगों में सातवां है।
महर्षि कपिल मुनि विरचित सांख्यसूत्र में राग के विनाश को (३-३०) तथा निर्विषय मन को (६-२५) ध्यान कहा गया है।
विष्णुपुराण में ध्यान के लक्षण को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है अन्य विषयों की ओर से निःस्पृह होकर परमात्मस्वरूप को विषय करने वाले ज्ञान की एकाग्रता सम्बन्धी परम्परा को ध्यान कहा जाता है । यह यम-नियमादि प्रथम छह योगांगों से सिद्ध किया जाता है। समाधि
सर्वार्थ सिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप को प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार भाण्डागार में अग्नि के लग जाने पर बहुत उपकारक होने के कारण उसे (अग्नि को) शान्त किया जाता है उसी प्रकार अनेक व्रत-शीलों से सम्पन्न मुनि के तप में कहीं से बाधा के उपस्थित होने पर उस बाधा को दूर कर जिसे धारण किया जाता है उसका नाम समाधि है। प्रा. वीरसेन ने समाधि के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में जो सम्यक् अवस्थान होता है उसका गाम समाधि है। तत्त्वानुशासन में ध्याता और ध्येय की एकरूपता को समाधि कहा गया है। समाधितन्त्र की प्रा. प्रभाचन्द्र विरचित टीका में समाहित-समाधियुक्त-अन्तःकरण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उसे एकाग्रीभूत मन कहा है"। पाहुडदोहा में समाधि की विशेषता को प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होकर स जाता है उसी प्रकार यदि चित्त प्रात्मा में विलीन होकर समरस हो जावे तो फिर जीव को समाधि में
१. तत्त्वानु. ५६. २. योगसारप्रा. ६-७. ३. त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२०. ४. तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । यो. सू. ३-२. ५. रागोपहतिया॑नम् । सां. द. ३-३०, ६-२५ भी द्रष्टव्य है। ६. तपप्रत्ययकाग्रयसन्ततिश्चान्यनिःस्पृहा। ___ तद् ध्यानं प्रथम अभिनिष्पाद्यते नप ॥ ६, ७, ८६. ७. यथा भाण्डागारे दहने समुपस्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीयते बहूपकारकत्वात् तथाऽनेकव्रत-शीलसमृद्धस्य
मुनेस्तपसः कुतश्चित् प्रत्यूहे समुपस्थिते तत्संधारणं समाधिः । स. सि. ६-२४, त. वा. ६, २४, ८. ८. दंसण-णाण-चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही णाम । धवला पु. ८, पृ. ८८. ६. सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः ॥ १३७।। १०. समाहितान्तःकरणेन-समाहितम् एकाग्रीभूतं तच्च तदन्तःकरणं च मनस्तेन। समाधि. टी. ३.