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प्रस्तावना
ध्यान की सम्भावना सर्वत्र पांचवें गुणस्थान तक बतलायी गई है ।
धर्म्यध्यान -- तत्वार्थ सूत्र में भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार इसका सद्भाव अप्रमत्त, उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के बतलाया गया है। ध्यानशतक में भी लगभग यही अभिप्राय प्रगट किया गया है । टीकाकार हरिभद्र सूरि के स्पष्टीकरण से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें उसका सद्भाव उपशमश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि के श्रपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानों में भी अभीष्ट है ।
सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक और श्रमितगतिश्रावकाचार में उसका सद्भाव अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में स्वीकार किया गया है ।
धवलाकार उसे श्रसंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय तक सात गुणस्थानों में स्वीकार करते हैं ।
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हरिवंशपुराण में उसके स्वामी के सम्बन्ध में 'अप्रमत्तभूमिक' इतना मात्र संकेत किया गया है । उससे यही अभिप्राय निकाला जा सकता है कि सम्भवतः हरिवंशपुराणकार को उसका अस्तित्व सर्वार्थसिद्धि प्रादि के समान असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर श्रप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थानों में अभिप्रेत है ।
श्रादिपुराण में उसे श्रागमपरम्परा के अनुसार सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतों और प्रमत्तसंयतों में स्वीकार कर उसका परम प्रकर्ष अप्रमत्तों में माना गया है । यही अभिप्राय तत्त्वानुशासनकार का भी रहा है ।
ज्ञानार्णव में श्रप्रमत्त और प्रमत्त ये दो मुनि उसके स्वामी माने गये हैं । मतान्तर से वहां उसका अस्तित्व सम्यग्दृष्टि प्रादि चार गुणस्थानों में प्रगट किया गया है ।
ध्यानस्तव में असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में उसके अस्तित्व को सूचित करते हुए सम्भवतः यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि प्रकृत धर्म्यध्यान ही अतिशय विशुद्धि को प्राप्त होकर शुक्लध्यानरूपता को प्राप्त होता हुआ दोनों श्रेणियों में भी रहता है। इस प्रकार से ध्यानस्तवकार सम्भवतः प्रकृत धर्म्य ध्यान को असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय व क्षीणकषाय तक स्वीकार करते हैं, अथवा शुक्लध्यान को वे दोनों श्रेणियों के अपूर्व करणादि गुणस्थानों में स्वीकार करते हैं । प्रसंग प्राप्त श्लोक १६ का जो पदविन्यास है उससे ग्रन्थकार का अभिप्राय सहसा विदित नहीं होता है ।
शुक्लध्यान - सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में पूर्व के दो शुक्लध्यान श्रुतकेवली के और अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के स्वीकार किये गये हैं । सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक स्पष्टीकरण के अनुसार उपशमक और क्षपक इन दोनों श्रेणियों में – अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तमोह इन चार उपशामकों के तथा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्यराय और क्षीणमोह इन चार क्षपकों के क्रम से वे पूर्व के दो शुक्लध्यान होते हैं ।
तत्त्वार्थं भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र में पूर्व के दो शुक्लध्यान धर्मध्यान के साथ उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के तथा अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के निर्दिष्ट किये गये हैं । यही अभिप्राय ध्यानशतककार का भी रहा दिखता है ।
धवलाकार के अभिप्रायानुसार प्रथम शुक्लध्यान उपशान्तकषाय के, द्वितीय क्षीणकषाय के, तृतीय सूक्ष्म काययोग में वर्तमान सयोग केवली के और चतुर्थ शैलेश्य श्रवस्था में प्रयोग केवली के होता है । प्रादिपुराणकार मौर ज्ञानार्णव के कर्ता का भी यही अभिमत रहा है ।
हरिवंशपुराणकार के श्रभिमतानुसार प्रथम सम्भवतः बादर योगों के निरोध होने तक सयोग केवली के और चतुर्थ प्रयोगी जिनके होता है ।
शुक्लध्यान दोनों श्रेणियों के गुणस्थानों में, द्वितीय केवली के, तृतीय सूक्ष्म काययोग में वर्तमान सयोग
बृहद्रव्यसंग्रह टीका के अनुसार प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणि के प्रपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्ति उपशमक, सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक और उपशान्तकषाय पर्यन्त चार गुणस्थानों में तथा क्षपक