________________
प्रस्तावना
निर्जरा का कारण है, तथा वे संवर व निर्जरा मुक्ति के कारण हैं । इस प्रकार परम्परा से मुक्ति का कारण वह ध्यान ही है (१६)जिस प्रकार अग्नि चिरसंचित इन्धन को भस्मसात कर देती है उसी प्रकार ध्यान चिरसंचित कर्मरूप इन्धन को भस्मसात् कर देता है। अथवा जिस प्रकार वायु के आघात से मेघों का समूह विलय को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार ध्यानरूप वायु के प्राघात से कर्मरूप मेघसमूह क्षणभर में विलीन हो जाता है। इतना ही नहीं, ध्याता उस ध्यान के प्रभाव से इस लोक में मानसिक और शारीरिक दुखों से भी सन्तप्त नहीं होता (१०१-४) । इस प्रकार ध्यान में अपूर्व सामर्थ्य है।
ध्यान पर आरूढ़ हुमा ध्याता कि इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष और मोह से रहित हो जाता है; इसलिए उसके जहां नवीन कर्मों के प्रागमन (प्रास्रव) का निरोध होता है वहां उस ध्यान से उद्दीप्त तप के प्रभाव से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार वह ध्यान परम्परा से निर्वाण का कारण है।
ध्यान के स्वामी ध्यानशतक में तत्त्वार्थसूत्र के समान ध्यान के पात, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनमें से प्रत्येक के भी चार चार भेद कहे गये हैं। प्रार्तध्यान
उनमें चारों प्रकार का प्रार्तध्यान छठे गुणस्थान तक सम्भव है, यह अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र' और ध्यानशतक (१८) दोनों में ही प्रगट किया गया है।
प्रा. पूज्यपाद विरचित तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में प्रकृत सूत्र को स्पष्ट करते हुए यह विशेषता प्रगट की गई है कि अविरतों-असंयतसम्यग्दृष्टि तक-और देशविरतों के वह चारों प्रकार का प्रार्तध्यान होता है, क्योंकि वे सब असंयम परिणाम से सहित होते हैं। परन्तु प्रमत्तसंयतों के प्रमाद के उदय की तीव्रता से कदाचित् निदान को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान होते हैं।
तत्त्वार्थवार्तिक में इस प्रसंग में इतना मात्र कहा गया है कि निदान को छोड़कर शेष तीन मार्तध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रता से प्रमत्तसंयतों के कदाचित हा करते हैं। सूत्र की स्थिति को देखते हुए यह स्वयं प्रगट है कि प्रथम तीन पार्तध्यान प्रमत्तसंयतों तक कदाचित् होते हैं, परन्तु निदान प्रमत्तसंयतों के नहीं होता।
मूलाचार, स्थानांग, समवायांग और प्रोपपातिकसूत्र में किसी भी ध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया गया है।
हरिवंशपुराण में सामान्य से इतना मात्र निर्देश किया गया है कि वह प्रार्तध्यान छह गुणस्थान भूमिवाला है-छह गुणस्थानों में सम्भव है।
ज्ञानार्णव में उसका हरिवंशपुराण के समान सामान्य से 'षड्गुणस्थानभूमिक' ऐसा निर्देश करके
१. मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्टणिट्टअट्ठेसु ।
थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥ द्र. सं. ४८. २. तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् । त. सू. (दि.) ६-३४, श्वे. ६-३५. ३. तत्राविरत-देशविरतानां चतुर्विधमातं भवति, असंयमपरिणामोपेतत्वात् । प्रमत्तसंयतानां तु निदान
वय॑मन्यदात्रियं प्रमादोदयोद्रेकात् कदाचित् स्यात् । स. सि. ६-३४. ४. कदाचित् प्राच्यमार्तध्यानत्रयं प्रमत्तानाम् । निदानं वर्जयित्वा अन्यदातंत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात् कदा
चित् प्रमत्तसंयतानां भवति । त. वा. ६, ३४, १. ५. अधिष्ठानं प्रमादोऽस्य तिर्यग्गतिफलस्य हि । परोक्षं मिश्रको भावः षड्गुणस्थानभूमिकम् ॥ ५६-१८.