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६२
श्रालंबण
प्रासव
आसवदारावाय
ईसा
उदाहरण
उप्पाय
उबएस
उवप्रोग
उवसग्ग
वसंत मोह उसणदोस
कम्म कम्मविवाग
कलुस कायकिरिय
कायजोग
काल
काला लेस्सा
कावोयले सा
कित्तण
केवली
खंति
खिइ
खीणमोह
सूत्र के अनुसार कथन करना
साकार (ज्ञान) व निराकार (दर्शन) उपसर्ग, देव- मनुष्यादि कृत उपद्रव उपशामक निर्ग्रन्थ
अर्थ व
हिसानुबन्धी आदि किसी एक रौद्रध्यान में निरन्तर प्रवृत्त रहना गत्तवितक्कमवियार एकत्ववितर्क प्रविचार जिस ध्यान में भेद से रहित व्यंजन, योग के संक्रमण रहित वितर्क (श्रुत) होता है ज्ञानावरणादिरूप परिणत पुद्गल कर्मोदय
श्रात्मा को कलुषित करने वाली कषाय उच्छ्वास- निःश्वासरूप काय की क्रिया श्रदारिकादि शरीर से युक्त जीब के वीर्य की परिणतिविशेष
गम
चक्क वट्टी
चारित
चारित्तभावणा
चित्त
भालम्बन
चिंता
प्रास्रव
आलवद्वारापाय
ईर्ष्या
उदाहरण
उत्पाद
उपदेश
उपयोग
उपसर्ग
उपशान्तमोह उत्सन्न दोष
कर्म
कर्म विपाक
कलुष कायक्रिया
कायवोग
काल
कृष्णलेश्या कापोत लेश्या
कीर्तन
केवलिन् क्षान्ति
क्षिति
क्षीणमोह
गम
चक्रवर्तिन्
चारित्र
चारित्रभावना
चित्त
ध्यानशतकम्
धर्मध्यान पर प्रारूढ होने के लिए जिसका सहारा लिया जाता है
कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व प्रादि मिथ्यात्व आदि से उत्पन्न होने वाला दुःख
प्रतिपक्षी के अभ्युदय को देखकर मन में
उत्पन्न होनेवाले मात्सर्यभावरूप ईर्ष्या
चिन्ता
दृष्टान्त
उत्पाद, उत्पत्ति
कलासमूह अथवा चन्द्र-सूर्य आदि की गमनक्रिया से उपलक्षित दिन श्रादि
कृष्णलेश्या
कापोत लेश्या
सामान्य से निर्देश करना
केवलज्ञान से संयुक्त
शान्ति — क्रोध का परित्याग धर्मा आदि आठ पृथिवियां
क्षपक निर्ग्रन्थ
चतुर्विंशतिदण्डक आदि
चक्र के धारक भरतादि सम्राट्
चारित्र, अशुभ क्रिया का परित्याग, अनिन्द्य
आचरण
समस्त सावद्य योग की निवृत्तिरूप क्रिया का
अभ्यास
१२, ४२, ६६
५०
८८
भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता रूप तीन प्रकार का अनवस्थित अध्यवसान भावना और अनुप्रेक्षा से रहित मन की प्रवृत्ति
१०
४८
५२, ७७, ७८
६७
५५
६१
६३
6
२६
८०
५१
२०
८ १
३, ७६
३५ १४, २५
१४, २५ ६८
४४, ७६
६६
૫૪
६३
४६
३३, ५८
३३
२, ३, ७६
२, ४