________________
प्रस्तावना
३
निर्देश किया गया उस प्रकार उपर्युक्त विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पसूत्र में अपने नामका निर्देश नहीं किया गया ।
जिस प्रकार उसे जिनभद्र की कृति मानने में नमस्कारविषयक पद्धति बाधक प्रतीत होती है उसी प्रकार उसे नियुक्तिकार प्रा. भद्रबाहु की कृति मानने में भी वही बाघा दिखती है । यह ठीक है कि नियुक्तिकार किसी नवीन प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए उसके प्रारम्भ में मंगलस्वरूप नमस्कार करते हैं, पर बे सामान्य से तीर्थंकरों को नमस्कार करते देखे जाते हैं । यथा—
तित्थकरे भगवंते श्रणुत्तरपरक्कमे श्रमितणाणी । तिण्णे सुगतिगतिगते सिद्धिपधपदेसए वंदे ॥
भाव. नि. ८० (१०२२), पृ. १६५.
कहीं वे प्रकरण से सम्बद्ध गणधर आदि को भी नमस्कार करते हुए देखे जाते हैं । जैसे— एक्कारस वि गणधरे पवायए पवयणस्स वंदामि । सव्वं गणधरवंसं वायगवंसं
पवयणं च ॥
आव. नि. ८२ (१०५९), पृ. २०२.
उन्होंने ध्यानशतक के समान कहीं योगीश्वर वीर जैसे किसी को नमस्कार किया हो, ऐसा देखने में नहीं आया । अतएव हरिभद्र सूरि ने महान् अर्थ का प्रतिपादक होने से उसे जो शास्त्रान्तर कहा है उससे वह एक स्वतंत्र ग्रन्थ ही प्रतीत होता है । यदि वह नियुक्तिकार की कृति होता तो कदाचित् वे उनका उल्लेख भी कर सकते थे । पर उन्होंने उसके कर्ता का उल्लेख नियुक्तिकार के रूप में न करके सामान्य ग्रन्थकार के रूप में ही किया है । यथा
१ गाथा ११ की उत्थानिका में वे साधु के प्रार्तध्यानविषयक शंका का समाधान करते हुए कहते है - प्राह च ग्रन्थकारः ।
२ गा. २८- २६ में निर्दिष्ट धर्मध्यानविषयक भावना मादि १२ द्वारों के प्रसंग में वे कहते हैं कि यह इन दो गाथाओं का संक्षिप्त अर्थ है, विस्तृत अर्थ का कथन प्रत्येक द्वार में ग्रन्थकार स्वयं करेंगे । यथा - इति ... 'गाथाद्वयसमासार्थः, व्यासार्थं तु प्रतिद्वारं ग्रन्थकारः स्वयमेव वक्ष्यति ।
सम्भव है कि टीकाकार हरिभद्र सूरि को प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता का ज्ञान न रहा हो अथवा उन्होंने उनके नाम का निर्देश करना आवश्यक न समझा हो । यह अवश्य है कि प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना नियुक्तिकार प्रा. भद्रबाहु और जिनभद्र क्षमाश्रमण के समय के आस-पास ही हुई है । जैसा कि श्रागे स्पष्ट किया जानेवाला है, इसका कारण यह है कि उसके ऊपर श्रा. उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थ सूत्र के अन्तर्गत ध्यान के प्रकरण का काफी प्रभाव रहा है । तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल प्रायः तीसरी शताब्दि है । इसी प्रकार वह स्थानांग के अन्तर्गत ध्यान के प्रकरण से भी अत्यधिक प्रभाबित है। वर्तमान श्राचारादि भागमों का संकलन वलभी वाचना के समय प्रा. देवद्ध गणि के तत्त्वावधान में बीर निर्वाण के पश्चात् ६८० वर्षों के आस-पास किया गया है। तदनुसार वह ( स्थानांग ) पांचवी शताब्दि की रचना ठहरती है । इससे ज्ञात होता है कि प्रस्तुत ध्यानशतक की रचना पांचवीं शताब्दि के बाद हुई है । साथ ही उसके ऊपर चूंकि हरिभद्र सूरि के द्वारा टीका रची गई है, इससे उसकी रचना हरिभद्र सूरि ( प्रायः विक्रम की की ८वीं शताब्दि) के पूर्व हो चुकी है, यह भी सुनिश्चित है । इसके अतिरिक्त जैसा कि हरिभद्र सूरि ने
१. जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा विरचित विशेषणवती, बृहत्क्षेत्रसमास और बृहत्संग्रहणी श्रादि अन्य कुछ कृतियां भी हैं, पर उनके सामने न होने से कहा नहीं जा सकता कि वहां भी उनकी यही पद्धति रही है या अन्य प्रकार की ।
२. यथा—इदं गाथापंचकं जगाद नियुक्तिकारः - आव. नि. हरि. टी. ७१ ( उत्थानिका )