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________________ ध्येयान्तर्गतजिनाज्ञाया विशिष्टत्वम् २५ अनेकान्तपरिच्छेदात्मिकेत्यर्थः, भूतानां वा–सत्त्वानां भावना भूतभावना, भावना वासनेत्यनर्थान्तरम् । उक्तं च-कूरावि सहावेणं राग-विसवसाणुगावि होऊणं । भावियजिणवयणमणा तेलुक्कसुहावहा होंति ॥१॥ श्रूयन्ते च चिलातीपुत्रादय एवंविधा बहव इति । तथा 'अनाम्' इति सर्वोत्तमत्वादविद्यमानमूल्यामिति भावः । उक्तं च-सब्वेवि य सिद्धता सदव्वरयणासया सतेलोक्का । जिणवयणस्स भगवनो न मुल्लमित्तं अणग्घेणं ॥१॥ तथा स्तुतिकारेणाप्युक्तम् -कल्पद्रुमः कल्पितमात्रदायी, चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते । जिनेन्द्रधर्मातिशयं विचिन्त्य, द्वयेऽपि लोको लघुतामवैति ॥१॥ इत्यादि, अथवा 'ऋणघ्नाम्, इत्यत्र ऋणंकर्म, तद्ध्नामिति, उक्तं च-जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं ।। तं नाणी तिहिँ गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥ इत्यादि, तथा 'अमिताम्' इत्यपरिमिताम्, उक्तं च-सव्वनदीणं जा होज्ज वालुया सब्वउदहीण जं उदयं । एत्तो वि अणंतगुणो अत्थो एगस्स सुत्तस्स ॥१॥ अमृतां वा मृष्टां वा पथ्यां वा, तथा चोक्तम्-जिणवयणमोदगस्स उ रत्ति च दिवा य खज्जमाणस्स। तित्ति बुहो न गच्छइ हेउसहस्सोवगूढस्स ॥१॥ नर-नरय-तिरिय-सुरगणसंसारियसव्वदुक्ख-रोगाणं । जिणवयणमेगमोसहमपवग्गसुहक्खयंफलयं ॥२॥ सजीवां वाऽमृतामपपत्तिक्षमत्वेन साथिकामिति भावः, न तु यथा-तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा हस्त्यश्व-रथवाहिनी ॥१॥ इत्यादिवन्मृतामिति, तथा 'अजिताम्' इति शेषप्रवचनाज्ञा. भिरपराजितामित्यर्थः। उक्तं च-जीवाइवत्थचिंतणकोसल्लगुणेणऽणण्णसरिसेणं । सेसवयणेहिं अजियं जिणिदवयणं महाविसयं ॥१॥ तथा 'महार्थाम' इति महान–प्रधानोऽर्थो यस्याः सा तथाविधा ताम्, तत्र पूर्वापराविरोधित्वादनुयोगद्वारात्मकत्वान्नयगर्भत्वाच्च प्रधानाम्, महत्स्थां वा अत्र महान्तः-सम्यग्दृष्टयो भव्या एवोच्यन्ते, ततश्च महत्सु स्थिता महत्स्था तां च, प्रधानप्राणिस्थितामित्यर्थः, महास्थां वेत्यत्र महा पूजोच्यते, तस्यां स्थिता महास्था ताम्, तथा चोक्तम्-सव्वसुरासुरमाणुस-जोइस-वंतरसुपूइयं णाणं । जेणेह गणहराणं छुहंति चुण्णे सुरिंदावि ॥१॥ तथा 'महानुभावाम्' इति तत्र महान्-प्रधानः प्रभूतो वाऽनुभावः-साम र्थ्यादिलक्षणो यस्याः सा तथा तां, प्राधान्यं चास्याश्चतुर्दशपूर्वविदः सर्वलब्धिसम्पन्नत्वात्, प्रभूतत्वं च प्रभूतशब्द का अर्थ प्राणी भी होता है, इस प्रकार प्राणियों की भावना (वासना) रूप होने से भी उसे भूतभावना समझना चाहिए। कहा भी गया है-रागरूप विष के वशीभूत हुए स्वभावतः क्रूर प्राणी भी-जैसे किरातीपुत्र प्रादि-अन्तःकरण से जिनवाणी को भावना द्वारा तीनों लोकों के सुख के भोक्ता होते हैं। गाथोक्त 'प्रहग्घ[अणग्घ' शब्द के अभिप्राय को व्यक्त करते हुए टीकाकार ने प्रथमत: उसका 'अना' संस्कृत रूप ग्रहण करके उसे सर्वोत्कृष्ट होने से अमूल्य बतलाया है। पश्चात् विकल्परूप में उसका 'ऋणघ्ना' संस्कृत रूप मान कर उन्होंने ऋण का अर्थ कर्म बतलाते हुए उसे कर्म की घातक बतलाया है। प्रमाण रूप में एक प्राचीन गाथा' को उद्धृत करते हुए वहां यह निर्देश किया गया है कि जिस कर्म को अज्ञानी जीव अनेक करोड़ वर्षों में क्षीण करता है उसे ज्ञानी जीव तीन गुप्तियों से युक्त होकर उच्छ्वास मात्र काल में क्षीण कर डालता है। वह जिनाज्ञा अपरिमिता इसलिये है कि उसके अर्थ का कोई प्रमाण नहीं है-वह अनन्त है। कहा भी है-सब नदियों की जो चालु है तथा सब समुद्रों का जो जल है उससे भी अनन्तगुणा एक सूत्र का अर्थ होता है । अथवा गाथोक्त 'प्रमिय' शब्द का रूपान्तर 'अमृता' भी होता है, तदनुसार उक्त जिनाज्ञा को अमृत के समान हितकर समझना चाहिये । अथवा 'अमृता' से उसे सजीव-विनाश से रहित-जानना चाहिये। अन्य प्रवचनाज्ञाओं द्वारा पराजित न होने के कारण उसे अजिता कहा गया है। वह पूर्वापर विरोध से रहित होती हुई अनुयोगद्वारस्वरूप व नयों से गभित होने के कारण महार्था कही जाती है। गाथोपयुक्त 'महत्थं पद के रूपान्तर 'महत्स्थाम्' व 'महास्थाम्' भी विकल्प रूप में ग्रहण किये गये हैं। तदनुसार सम्यग्दृष्टि भव्य जैसे महान पुरुषों में स्थित होने के कारण उसे 'महत्स्था' कहा गया है, अथवा महा का अर्थ पूजा होता है, उसमें स्थित होने के कारण उसे 'महास्था' भी कहा गया है। वह जिनाज्ञा महानुभावा-महान् सामर्थ्य १. प्रव. सा. ३-३८; भ. पा. १०८.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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