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ध्यानशतकम्
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निग्रह इति । किमयं सामान्येन सर्वथैवेत्थम्भतः क्रम: ? न, किन्तु 'भवकाले' केवलिन:-अत्र भवकालशब्देन मोक्षगमनप्रत्यासन्नः अन्तर्मुहुर्तप्रमाण एव शैलेश्यवस्थान्तर्गतः परिगृह्मते, केवलमस्यास्तीति केवली तस्य, शुक्लध्यान एवायं क्रमः । शेषस्यान्यस्य धर्मध्यानप्रतिपत्तुर्योग-कालावाश्रित्य किम् ? 'यथासमाधिना' इति यथैव स्वास्थ्यं भवति तथैव पतिपत्तिरिति गाथार्थः ॥४४॥ गतं क्रमद्वारम् । इदानीं ध्यातव्यमुच्यते, तच्चतुर्भेदमाज्ञादिः । उक्तं च-आज्ञाऽपाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यम् [त. सू. ६-३७] इत्यादि, तत्राऽऽद्यभेदप्रतिपादनायाह--
सुनिउणमणाइणिहणं भूयहियं भूयभावणमह[ण] ग्धं । प्रमियमजियं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ॥४५॥ झाइज्जा निरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं ।
अणिउणजणदुण्णेयं नय-भंग-पमाण-गमगहणं ॥४६॥ सुष्ठु अतीव, निपुणा कुशला सुनिपुणा ताम्, प्राज्ञामिति योगः, नैपुण्यं पुनः सूक्ष्मद्रव्याधुपदर्शकत्वात्तथा मत्यादिप्रतिपादकत्वाच्च । उक्तं च -सुयनाणंमि नेउण्णं केवले तयणंतरं । अप्पणो सेसगाणं च जम्हा तं परिभावगं ॥१॥ इत्यादि, इत्थं सुनिपुणां ध्यायेत् । तथा 'अनाद्यनिधनाम्' अनुत्पन्नशाश्वतामित्यर्थः, अनाद्यनिधनत्वं च द्रव्याद्यपेक्षयेति । उक्तं च-"द्रव्यार्थादेशादित्येषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासीत्" इत्यादि । तथा 'भूतहिताम्' इति-इह भूतशब्देन प्राणिन उच्यन्ते, तेषां हितां-पथ्यामिति भावः, हितत्वं पुनस्तदनुपरोधिनीत्वात्तथा हितकारिणीत्वाच्च । उक्तं च-'सर्वे जीवा न हन्तव्याः' इत्यादि, एतत्प्रभावाच्च भूयांसः सिद्धा इति । 'भूतभावनाम्' इत्यत्र भूतं सत्यं भाव्यतेऽनयेति भूतस्य वा भावना भूतभावना, पौर काययोग के निग्रह (निरोध) रूप है। शेष (धर्मध्यानी) के उसकी प्राप्ति का क्रम समाधि के अनुसार है-जिस प्रकार से भी योगों को स्वस्थता होती है उसी प्रकार से उसकी प्रतिपत्ति का क्रम समझना चाहिए ॥४४॥
प्रागे ध्यातव्य (ध्येय) द्वार की प्ररूपणा की जाती है। वह (ध्यातव्य) आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान के भेद से चार प्रकार का है। उनमें प्रथमतः दो गाथाओं द्वारा प्राज्ञा का विवेचन किया जाता है
अतिशय निपुणा, अनादि-निधना, प्राणियों का हित करने वाली, भतभावना-सत्य को प्रगट करने वाली, अना, अमिता, अजिता, महार्था, महानुभावा और महाविषया; ऐसी जो लोक को दीपक के समान प्रकाशित करने वाले जिन भगवान की निर्दोष आज्ञा--जिनवाणी-है उसका निर्मल अन्तःकरण से ध्यान करना चाहिए । नय, भंग, प्रमाण और गम से गम्भीर वह जिनाज्ञा प्रनिपुण-सत्-असत् का विचार न करने वाले अज्ञानी जनों के लिए दुरवबोध है ।।
विवेचन-ध्यातव्य का अर्थ ध्यान का विषय है, जिसका कि उसमें चिन्तन किया जाता है। वह आज्ञादि के भेद से चार प्रकार का है। उनमें प्रथमतः आज्ञा (जिनाज्ञा) को विशेषता को प्रगट करते हुए उसके चिन्तन की यहाँ प्रेरणा की गई है। वह प्राज्ञा चंकि सूक्ष्म द्रव्य आदि की प्ररूपक होने के साथ मतिज्ञान आदि की प्रतिपादक है। इसीलिए उसे अतिशय निपुणा कहा गया है। कहा भी हैश्रुतज्ञान में निपुणता है, तत्पश्चात् केवलज्ञान में निपुणता है जो मति प्रादि शेष ज्ञानों की प्रतिपादक (प्रकाशक) है। उक्त प्राज्ञा का प्रवाह द्रव्याथिक नय की अपेक्षा अनादि काल से चला पाया है और अनन्त काल तक रहने वाला है, इसलिए उसे उत्पत्ति और विनाश से रहित होने के कारण अनादिनिधना कहा गया है। किसी भी प्राणी का निघात नहीं करना चाहिए, यह जिनाज्ञा के द्वारा सर्वत्र निर्देश किया गया है। इसीलिए उसे भतिहिता-भतों (प्राणियों) को हितकारक-जानना चाहि 'भूतभावना' में भूत का अर्थ सत्य है, वह अनेकान्तवाद के आश्रय से उस सत्य को यथार्थ वस्तु स्वरूप को-प्रगट करती है, इसीलिए उसे 'भूतभावना' विशेषण से विशिष्ट बतलाया गया है। अथवा भूत १. मूल भाग के लिये संस्कृत टीक देखिये । (प्रवचनसार ३-३८; भगवती आराधना १०८)