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________________ -३८] ध्यानयोग्यदेश-कालनिरूपणम गाथार्थः ॥३६॥ यतश्चैवं........ जो [तो] जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयण-कायजोगाणं। भूप्रोवरोहरहिरो सो देसो झायमाणस्स ॥३७॥ यत एवं तदुक्तं 'ततः' तस्मात्कारणाद् 'यत्र' ग्रामादौ स्थाने 'समाधानं' स्वास्थ्यं भवति' जायते, केषामित्यत आह--'मनोवाक्काययोगानां' प्राग्निरूपितस्वरूपाणामिति । आह-मनोयोगसमाधानमस्तु, वाक्काययोगसमाधानं तत्र क्वोपयुज्यते, न हि तन्मयं ध्यानं भवति ? अत्रोच्यते-तत्समाधानं तावन्मनोयोगोपकारकम, ध्यानमपि च तदात्मकं भवत्येव । यथोक्तम्-‘एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसी न वत्तव्वा । इय वेयालियवक्कस्स भासयो वाइगं झाणं ॥१॥ तथा-सुसमाहियकर-पायस्स अकज्जे कारणमि जयणाए। किरियाकरणं जं तं काइयझाणं भवे जइणो ॥२॥ न चात्र समाधानमात्रकारित्वमेव गृह्यते, किन्तु भूतोपरोधरहितः, तत्र भूतानि पृथिव्यादीनि, उपरोधः तत्सङ्घट्टनादिलक्षणः, तेन रहितः परित्यक्तो यः 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्' अनृतादत्तादान-मैथुन-परिग्रहाद्युपरीधरहितश्च स देशो 'ध्यायतः, चिन्तयतः, उचित इति शेषः, अयं गाथार्थः ॥३७॥ गतं देशद्वारम्, अधुना कालद्वारमभिषित्सुराह कालोऽवि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ। - न उ दिवस-निसा-वेलाइनियमणं झाइणो भणियं ॥३८॥ कलनं कालः कलासमूहो वा कालः, स चार्द्धतृतीयेषु द्वीप-समुद्रेषु चन्द्र-सूर्यगतिक्रियोपलक्षितो कहीं भी स्थित होता हुआ समाधि को प्राप्त करता है ॥३६॥ इसी कारण से इसलिए जहां मन, वचन और काय योगों को समाधान (स्वास्थ्य) होता है वही प्रदेश ध्यान करने वाले योगी के लिए उपयुक्त होता है। विशेष इतना है कि वह भूतोपरोध से रहित-प्राणिहिंसा एवं असत्यभाषण प्रादि से रहित होना चाहिए ।। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जहाँ पर मन, वचन एवं काय योगों को स्वस्थता है-उनके विकृत होने की सम्भावना नहीं है तथा जो प्राणिविघात, असत्यता, चोरी, प्रब्रह्म (मैथुन) और परिग्रह रूप पापाचरण से रहित है वही स्थान ध्यान के लिए उपयोगी माना गया है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि ध्यान के लिए मन की स्वस्थता तो अनिवार्य है, किन्तु वचन और काय की स्वस्थता का वहाँ कुछ उपयोग नहीं है, क्वोंकि ध्यान वचन व कायरूप नहीं है, वह केवल मनरूप है। इसका समाधान यह है कि वचन और काय को स्वस्थता मनयोग की उपकारक है । दूसरे, ध्यान वचन व कायस्वरूप भी है। कहा भी गया है मुझे ऐसे वचन बोलना चाहिए और ऐसे नहीं बोलना चाहिए, इस प्रकार विचारपूर्वक जो बोलता है उसके वाचनिक ध्यान होता है। जो ध्याता मुनि हाथ-पाँवों को स्वाधीन रखता हा अयोग्य कार्य नहीं करता है तथा प्रावश्यक योग्य कार्य को यत्नपूर्वक करता है उसके इस प्रकार के अनुष्ठान को कायिक ध्यान कहा जाता है। इस प्रकार वचन और काय की स्वस्थता चूंकि मनोयोग की उपकारक है-उसे स्वस्थ रखती है, इसलिए उसे भी ध्यानरूप जानना चाहिए ॥३७॥ अब क्रमप्राप्त कालद्वार का निरूपण किया जाता है देश के समान काल भी ध्यान के लिए वही योग्य है जिसमें योगों को उत्तम समाधान प्राप्त होता है। ध्याता के लिए दिन, रात और वेला-काल के एक देशरूप मुहूर्त प्रादि-के नियम १. प्रात्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शन-ज्ञानमयो विशुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ॥ द्वात्रिंशिका २५. १. एवंविहा गिरा मे बत्तव्वा एरिसी न वत्तव्वा । इय वेयालियबक्कस्स भासमो वाइगं झाणं । तथा सुसमाहियकर-पायस्स अकज्जे कारणंमि (?) जयणाए। किरियाकरणं जं तं काइयझाणं भवे जइणो ॥ (हरि. टीका उद्.)
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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