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दर्शनभावनास्वरूपम्
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रूपं प्रत्याख्यानाध्ययने न्यक्षेण वक्ष्यामः, तत्र शङ्कादय एव सम्यक्त्वाख्यप्रथमगुणातिचारत्वात् दोषाः शङ्कादिदोषास्तैः रहितः त्यक्तः, उक्तदोषरहितत्वादेव किम् ? ' प्रश (श्र ) म स्थैर्यादिगुणगणोपेतः' तत्र प्रकर्षेण भी मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये। इसका कारण यह है कि किसी एक पदार्थ के विषय में भी यदि सन्देह बना रहता है तो निश्चित है कि उसकी सर्वज्ञ व वीतराग जिनके ऊपर श्रद्धा नहीं है । शंकाशील प्राणी किस प्रकार से नष्ट होता है और इसके विपरीत निःशंक व्यक्ति किस प्रकार सुखी होता है, इसके लिए पेयापापी दो बालकों का उदाहरण दिया जाता है ।
दूसरा दोष कांक्षा है । सुगतादिप्रणीत विभिन्न दर्शनों के विषय में जो अभिलाषा होती है उसे कांक्षा कहा जाता है । वह भी देश और सर्व के भेद से दो प्रकार की है । अनेक दर्शनों में से किसी एक ही दर्शन के विषय में जो अभिलाषा होती है वह देशकांक्षा कहलाती है । जैसे सुगत (बुद्ध) प्रणीत दर्शन उत्तम है, क्योंकि उसमें चित्त के जय की प्ररूपणा की गई है और वही मुक्ति का प्रधान कारण है, इत्यादि । सभी दर्शनों की अभिलाषा करना, यह सर्वकांक्षा का लक्षण है। कपिल, कणाद और अक्षपाद आदि के द्वारा प्रणीत सभी मतों में अहिंसा का प्रतिपादन किया गया है तथा उनमें ऐहिक क्लेश का भी प्रतिपादन नहीं किया गया, श्रतएव वे उत्तम हैं; इत्यादि । श्रथवा इस लोक और परलोक सम्बन्धी सुखादि की अभिलाषा करना, इसे कांक्षा दोष जानना चाहिये। जिनागम में उभय लोक सम्बन्धी सुखादि की अभिलाषा का निषेध किया गया है। इसलिए वह भी सम्यक्त्व के प्रतिचार रूप है । एक मात्र मोक्ष की प्रभिलाषा को छोड़ कर अन्य किसी भी प्रकार की अभिलाषा सम्यक्त्व की घातक ही है। कांक्षा करने और न करने के फल को प्रगट करने के लिए राजा और श्रमात्य का उदाहरण दिया जाता है ।
सम्यक्त्व का तीसरा दोष विचिकित्सा अथवा विद्वज्जुगुप्सा है । जो पदार्थ युक्ति और श्रागम से भी घटित होता है उनके फल के प्रति सन्दिग्ध रहना, इसका नाम विचिकित्सा है। ऐसी विचिकित्सा वाला व्यक्ति सोचता है कि अतिशय कष्ट के कारणभूत इन कनकावली श्रादि तपों का परिणाम में कुछ फल भी प्राप्त होने वाला है या यों ही कष्ट सहन करना है। कारण कि लोक में कृषक (किसान) आदि की क्रियायें सफल और निष्फल दोनों ही प्रकार की देखी जाती हैं। शंका जहां समस्त व असमस्त द्रव्य गुणों को विषय करती है वहाँ यह विचिकित्सा केवल क्रिया को ही विषय करती है, अतएव इसे शंका से भिन्न समझना चाहिए। इसके सम्बन्ध में एक चोर का उदाहरण दिया गया है ।
जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा चुका है, सम्यक्त्व का तीसरा दोष विकल्परूप में विद्वज्जुगुप्सा भी है । जिन्होंने संसार के स्वभाव को जानकर समस्त परिग्रह का परित्याग कर दिया है वे साधु विद्वान् माने जाते हैं, उनकी जुगुप्सा या निन्दा करना; इसका नाम विद्वज्जुगुप्सा है । जैसे—ये साधु स्नान नहीं करते, उनका शरीर पसीने से मलिन व दुर्गन्धयुक्त रहता है, यदि वे प्रासुक जल से स्नान कर लें तो क्या हानि होने वाली इत्यादि प्रकार की साधुनिन्दा । ऐसी निन्दा करना उचित नहीं हैं, कारण कि शरीर तो स्वभावतः मलिन ही है । इसके विषय में एक श्रावकपुत्री का उदाहरण दिया जाता है ।
सम्यक्त्व का चौथा दोष है परपाषण्डप्रशंसा । परपाषण्ड का अर्थ है सर्वज्ञप्रणीत पाषण्डों से भिन्न अन्य पाखण्डी - क्रियावादी (१८०), प्रक्रियावादी ( ८४), प्रज्ञानिक (६७) और वैनयिक (३२) रूप तीन सौ तिरेसठ प्रकार के मिथ्यादृष्टि । उनकी प्रशंसा या स्तुति करना, इसका नाम परपाषण्डप्रशंसा है । इसके सम्बन्ध में पाटलिपुत्रवासी चाणक्य का उदाहरण दिया जाता है ।
पाँचवाँ सम्यक्त्व का दोष है परपाषण्डसंस्तव । पूर्वोक्त पाषण्डियों के साथ रहकर भोजन व वार्तालापादि रूप परिचय बढ़ाना, यह परपाषण्डसंस्तव कहलाता है । यहाँ सौराष्ट्रवासी श्रावक का उदाहरण दिया गया है ।