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भाषा / व्याकरण, साहित्य में प्रवेश का द्वार है। वाक्य / सूत्र और ग्रंथ का वास्तविक बोध संभव नहीं है ।
व्याकरण के स्पष्ट बोध के बिना किसी भी शब्द /
जैनशासन में भी स्थानकवासी आदि जो नए मत निकले हैं, उनका भी मूल व्याकरण-बोध की अज्ञानता ही है। व्याकरण के सम्यग्बोध के प्रभाव के कारण ही स्थानकवासी वर्ग 'चैत्य' शब्द का विपरीत अर्थ करके मार्ग - विमुख बनते जा रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जिनागमों के रहस्यार्थों को जानने के लिए व्याकरण का सम्यबोध अत्यन्त ही जरूरी है। संस्कृत भाषा ज्ञान / व्याकरण के सम्यबोध के लिए अनेक विद्वानों ने अनेक व्याकरण-ग्रंथों की रचना की है।
गुर्जर सम्राट् सिद्धराज की प्रार्थना को ध्यान में रखकर कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी भगवंत ने 'श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम्' की रचना की । भाषा विज्ञान के सांगोपांग बोध के लिए कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवंत ने 'शब्दानुशासनम्' के साथ-साथ 'लिंगानुशासनम्' धातु-पारायणम् अभियान चितामणिकोश, 'उणादिगण-वृत्ति', 'दद्याश्रय महाकाव्य' पादि की रचना कर भव्य जीवों पर महान् उपकार किया है ।
अनेक विद्वानों ने
'श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम्' की लोकप्रियता के विषय में कोई सन्देह नहीं है। इस ग्रंथ का अध्ययन / अध्यापन कर इस ग्रंथ की उपादेयत / महत्ता प्रगट की है।
की रचना की है और उसमें आए दुर्भाग्य से वह 'बृहन्त्यास पूर्ण
इस 'शब्दानुशासनम्' के ऊपर कलिकालसर्वज्ञ भगवंत ने 'बृहद्वृत्ति' क्लिष्ट पदों पर ८४००० श्लोक प्रमाण 'बृहन्म्यास' की भी रचना की है उपलब्ध नहीं है। उस 'बृहत्यास' के संक्षिमीकरण रूप ही पू. प्रा. श्री देवेन्द्रसूरिजी म. सा. के शिष्य प्राचार्य श्री कनकप्रभसूरिजी ने 'न्याससारसमुद्धार' की रचना की थी, जो धाज संपूर्णतया उपलब्ध है। आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व प. पू. प्राचार्य श्री नेभिसूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा से प. पू. ग्राचार्य श्री उदयसूरीश्वरजी म. सा. ने इस ग्रंथ (बृहद्वृत्ति लघन्यास महित) का प्रकाशन किया था।
आज से वर्षों पूर्व बाल्यवय में जब मेरा पाटण में पंडितवर्य श्री शिवलाल भाई के पास सिद्धहेम. का अभ्यास चल रहा था, उस समय दरम्यान इस महाकाय ग्रन्थ के अवलोकन का प्रसंग ग्राया था और उसकी जीर्ण-शीर्ण अवस्था को देखकर इस ग्रन्थ के पुनरुद्धार की भावना का मन में बीजारोपण हुआ था।
तत्पश्चात् अन्यान्य प्रवृत्ति में काफी समय व्यतीत हो गया । पुनः योगानुयोग संवत् २०३५ में परम पूज्य सुविशाल गच्छाधिपति श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की छत्रछाया में मेरे परम उपकारी परम गुरुदेव अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रं कर विजयजी गरिणवर्य श्री का भी पाटण में चातुर्मास हुआ । उस चातुर्मास दरम्यान पूज्यपाद वात्सल्यमूर्ति पंन्यास प्रवर श्री भद्रकर विजयजी गणिवयं श्री के चरम शिष्य मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म. का भी 'सिद्धहेम' का अभ्यास चल रहा था। 'लघुन्यास' की जीर्णावस्था को देख, उनके दिल में भी यही भावना पैदा हुई कि इस महाकाय ग्रन्थ का अवश्य पुनरुद्धार होना चाहिये । इस प्रसंग पर एक गुजराती कहावत याद आ जाती है - 'झाझा हाथ रलियामणां' चार हाथ मिलने पर भारी काम भी सुगम हो जाता है। बस ! प्रात्मीय मुनिश्री ने भी अपना पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया ।
संवत् २०४१ के रतलाम चातुर्मास दरम्यान मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म. ने तीसरे अध्याय से सातवें