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॥ ऐं नमः ॥
संपादक की कलम से...
पूज्य मुनिश्री वज्रसेन विजयजी म.
अनंत उपकारी तीर्थंकर परमात्मा जगत् के भव्य जीवों के उपकार के लिए केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद' 'धर्मतीर्थ' की स्थापना करते हैं। 'तीर्यतेऽनेनेति तीर्थः' की व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे संसार-सागर तरा जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। जैन वाङमय में 'तीर्थ' शब्द का अर्थ प्रथम गणधर, द्वादशांगी और चतुर्विध संघ (साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका) भी होता है।
परम तारक श्री अरिहंत परमात्मा के पवित्र मुख से 'त्रिपदी' का श्रवण करके बीजबुद्धि के निधान गणधर भगवंत 'द्वादशांगी' की रचना करते हैं। 'द्वादशांगी' के अन्तर्गत समस्त श्रुतज्ञान का समावेश हो जाता है।
किसी विवक्षा से ज्ञेय पदार्थों के दो भेद कर सकते हैं-(१) अनभिलाप्य और (२) अभिलाप्य ।
अनभिलाप्य अर्थात् ऐसे ज्ञेय पदार्थ, जिन्हें ज्ञान द्वारा जानने के बाद भी शब्द द्वारा व्यक्त न किया जा सके। अभिलाप्य अर्थात् ऐसे ज्ञेय पदार्थ, जिन्हें ज्ञान द्वारा जानने के बाद शब्द/वाणी द्वारा अभिव्यक्त किया जा सके।
तारक अरिहंत परमात्मा अपने केवलज्ञान द्वारा जगत् के समस्त पदार्थों के समस्त भावों को साक्षात् / प्रत्यक्ष जानते हए भी अपने ज्ञान का अनंतवाँ भाग ही वाणी द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं, क्योंकि ज्ञेय अनंत हैं और वाणी की शक्ति, समय, आयुष्य आदि मर्यादित हैं।
परमात्मा की धर्म देशना को गणधर-भगवंत सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं और इन्हीं सूत्रों को जैन-भाषा में 'पागम' कहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जितने भी पागम हैं, वे सब तीर्थंकर-परमात्मा की वाणी के ही संग्रह (Collection) रूप हैं। वे पागम मोक्ष-मार्ग के पथ-प्रदर्शक हैं।
पूज्यपाद वीर विजय जी म. ने ठीक ही कहा है-'विषमकाल जिनबिब-जिनागम भवियणक आधारा'. विषम (पंचम) काल में जिनबिंब और जिनागम ही भव्य-जीवों के लिए परम-आधार/श्रेयभूत हैं ।
गणधर भगवंतों ने ये पागम प्राकृत (अर्ध मागधी) भाषा में रचे हैं। उन आगमों के रहस्यार्थ/ ऐदंपर्यायार्थ को समझाने के लिए पूर्वाचार्यों ने उन आगमों के ऊपर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाओं की रचना की है।
नियुक्ति और भाष्य प्राकृत भाषा में रचे गये हैं। 'चूरी' को भी मुख्य भाषा 'प्राकृत' होते हुए भी उसमें कहीं-कहीं संस्कृत भाषा का भी प्रालंबन लिया गया है। नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी के रहस्यों के स्पष्टीकरण के लिए जिनशासन रहस्यवेदी गीतार्थ महर्षियों ने विविध टीकाओं की रचना की है। ये टीकाएँ संस्कृत भाषा में रची हुई हैं। अतः आगम-अभ्यास के अधिकारी संविग्न-मुनियों को संस्कृत भाषा का ज्ञान होना अत्यंत ही अनिवार्य है।