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प्राण हो तुम प्रेय भी हो सिद्धि हो तुम साधना भी ज्ञान हो तुम ज्ञेय भी हो राग हो तुम रागिनी भी दिवस हो तुम यामिनी भी क्यों इरूं मैं घन तिमिर से कृपा का प्रात है जब तक
ध्यान हो ध्यातव्य भी हो कर्म हो कर्तव्य भी हो तुम्हीं में सब समाहित है चरण हो गंतव्य भी हो
दान हो तुम याचना भी तृप्ति हो तुम कामना भी
अमर बन कर रहूंगा मैं
तुम्हारा गात है जब तक
एक ही बच रहता। भक्त उस एक को कहता है, भगवान । प्रेमी उस एक को कहता है, परमात्मा । ज्ञानी उस एक को कहता है, शून्य, पूर्ण, सत्य । जनक की भाषा ज्ञानी की भाषा है, यह जो मैंने गीत कहा यह भक्त की भाषा है। भक्त अपने को डुबा देता, परमात्मा को बचा लेता । ज्ञानी स्वरूप को बचा लेता और सब डुबा देता। इसलिए इन वचनों से घबड़ाना मत, क्योंकि ये ज्ञानी के वचन हैं। इनमें धीरे – धीरे परमात्मा भी खो जाएगा । और अंतिम बड़ी में गुरु भी खो जाएगा। रह जाएगा शुद्ध चिन्मात्र । मगर यह वही दशा है जिसको भक्त भगवान की अवस्था कहता है, भगवत्ता कहता है।
'सर्वदा क्रियारहित मुझको कहीं न विक्षेप है और कहीं न एकाग्रता है। कहां बोध है और कहां मूढ़ता है, कहां हर्ष और कहां विषाद ।'
क्व विक्षेपः क्व चैकाग्रयं क्व निर्बोधः क्व मूढ़ता।
क्व हर्षः क्व विषादो वा सर्वदा निष्कियस्य मे ।।
मैं सदा क्रियारहित हूं, मुझ क्रियारहित में अब कोई भी क्रिया नहीं है- एकाग्रता तक की क्रिया नहीं है-तो ज्ञान कैसे हो? मुझ निक्तिय में अब कोई विक्षेप नहीं है, कोई विचार नहीं है, कोई तरंग नहीं है, तो बोध कैसे हो? मगर ध्यान रखना, जनक कह रहे हैं कि न तो मैं ज्ञानी हूं और न मैं मूढ़ हूं। क्योंकि मूढ़ और ज्ञानी होना एक साथ चलते हैं। अज्ञानी होना और ज्ञानी होना एक साथ चलते हैं। इसलिए जहां सुकरात ने कहा है कि मैं अज्ञानी हूं, वहां जनक का वचन एक कदम और ऊपर जाता है। पहले सुकरात मानता था, मैं ज्ञानी हूं फिर उसने माना कि मैं अज्ञानी हूं यह पहले से तो