________________
का व्यवहार है। उन्होंने नहीं उत्तर दिया, क्योंकि बुद्ध ने जाना, जो भी उत्तर दिया जाएगा, गलत होगा। उत्तर मात्र में यह दावा आ जाएगा कि मैं जानता हूं -ही कहूं, या न कहूं। मैं कहां? जानना
हां? जानने को शेष क्या? ऐसी परम शून्यता की जो दशा है। और तब जनक कहते हैं, कहां किंचित और कहां अकिचित! अब ऐसा भी नहीं है कि थोडा जानता हूं और थोड़ा नहीं जानता कहां किंचित, कहां अकिचित?
इस बात को भी समझना।
तुम कई दफा किसी से कहते हो कि मुझे तुमसे बहुत प्रेम है तुमने शायद कभी विचार नहीं किया। प्रेम भी बहुत और थोड़ा हो सकता है? प्रेम होता है या नहीं होता, यह बात समझ में आती है, लेकिन थोड़ा और ज्यादा कैसे होता है ? प्रेम थोड़ा और ज्यादा कैसे हो सकता है? शायद तुमने बहुत सोच-विचार कर नहीं बात कही। शायद तुमने बहुत होशपूर्वक नहीं कही यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई आदमी एक लकीर खींच दे और कहे कि यह आधा वर्तुल है। आधा वर्तुल नहीं होता, वर्तुल तो तब होता है, तब पूरा ही होता है। अगर आधा है वर्तुल तो वर्तुल नहीं है, लकीर ही है। कुछ और होगा, वर्तुल नहीं है। शून्य आधा थोड़े ही होता है। कम-ज्यादा थोड़े ही होता है। पूर्ण भी कम -ज्यादा थोड़े ही होता है, पूर्ण ही होता है। जीवन में जो परम मूल्य हैं, उनके खंड़ नहीं होते।
इसलिए जनक कहते हैं, कहां किंचित और कहां अकिचित? अब न तो मैं यह कह सकता हूं कि मैंने थोड़ा पाया, न मैं यह कह सकता हूं कि मैंने ज्यादा पाया तुलना, सापेक्षताएं, मात्राएं, सब खो गयीं। एक गुणात्मक रूपातरण हुआ एक क्रांति हुई। पुराना सब गया, उससे जरा भी संबंध नहीं रहा। और जो नया हुआ है, वह इतना नया है कि उसको पुरानी भाषा में ढाला नहीं जा सकता। पुराने और नये में सारे संबंध विच्छिन्न हो गये हैं। सातत्य टूट गया है।
एक ही बच रहता है। इसलिए ज्ञान के, दवैत के सब संबंध विलीन हो जाते हैं।
झुका हर माथ है तब तक तुम्हारा साथ है जब तक
सिद्धि हो तुम शक्ति भी हो त्याग भी आसक्ति भी हो वंदना हो वंद्य भी हो गीत हो तुम गद्य भी हो अभय हूं सीस पर मेरे तुम्हारा हाथ है जब तक
गान हो तुम गेय भी हो