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इतना स्वर्ग, तो फिर का कंजूसी करनी है! फिर क्यों न वृक्षों से, चांद-तारों से, पहाड़-पत्थरों से, नदी-नालों से, सबसे क्यों न मिला लें अपने प्राण को?
तो एक व्यक्ति से भी प्रेम अगर ठीक से हो जाए, तो झरोखा परमात्मा का खुलता है। फिर वहीं से छलांग लग जाती है।
यह किसका तबस्तुम है फिजी में साकी यह किसकी जवानी है घटा में साकी यह कौन बजा रहा है शीरीं बरबत भीगी हुई बारिश की हवा में साकी
फिर प्रेम से भरे हुए आदमी को हर जगह उसकी ही पगध्वनि सुनायी पड़ती है। घटाओं में, बिजलियों में, सब जगह उसके ही अर बजते मालूम होते हैं।
यह किसका तबस्थूम है फिजी में साकी फिर हवा का झोंका भी आए तो उसी की खबर आती है। उसी के संदेश, उसी की पाती। यह किसकी जवानी है घटा में साकी
फिर घटा घुमड़कर उठे तो भी वही उठता। सब अंगड़ाइया उसकी। सब फूल उसके, सब पत्ते उसके।
यह कौन बजा रहा है शीरी बरबत
फिर जो भी संगीत गज रहा है इस अस्तित्व में, उसी का है। वही बजा रहा है। यह बांसुरी उसकी, यह वेणु उसकी।
भीगी हुई बारिश की हवा में साकी
और फिर भीगी हुई वा है बारिश की तो भी उसके ही स्पर्श का पता चलता, उसके ही होने की गंध आती। पृथ्वी से और आकाश से उसके ही होने की खबर आती। हर घड़ी में, सोते-जागते, उठते -बैठते वही घेरे रहता है।
लेकिन परिभाषा इस तत्व की नहीं हो सकती। प्रेम में अनुभव हो सकता है। परिभाषा मत मांगो, प्रेम मांगो। परिभाषा के कूड़ा-करकट को लेकर क्या करोगे? बोझ बढ़ जाएगा बुद्धि का, निर्भार न हो सकोगे। प्रेम मांगो कि पंख बनें, प्रेम मागो कि उड़ सको।
मेरे साकी शराबे -साफी देना हो जिससे गुनाह की तलाफी देना उतरे न खुमार जिंदगी भर जिसका ऐसी देना और इतनी काफी देना मांगो, प्रेम की शराब। उतरे न खुमार जिंदगी भर जिसका ऐसा नशा मांगो जो फिर उतरे न। चढ़े तो चढ़े, उतरे न।