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अष्टावक्र के नासापुट सुगंध से भर जाएं। वह जो ध्वनि, जो गीत उन्होंने भेजा था, लौटकर आ जाए। और वे समझें कि जनक का हृदय भी गज गया है, प्रतिध्वनित हो उठा है। इसलिए यह अंतिम चरण में जनक निवेदन करते हैं। जनक निवेदन करते हैं कुछ ऐसी बातें भी, जो अष्टावक्र ने छोड़ दीं।
यह भी समझ लेने जैसा है इसके पहले कि हम सूत्र में जाएं।
कोई भी सदगुरु शिष्य की परीक्षा के लिए एक ही उपाय रखता है-वह सब कह देता है, लेकिन कहीं कुछ एकाध-दो मुद्दे की बातें छोड़ जाता है। अगर शिष्य उन्हें पूरा कर दे, तो समझो कि समझा। अगर उतना ही दोहरा दे जितना गुरु ने कहा, तो समझो कि तोतारटत है। समझ आयी नहीं। वह जो खाली जगह है, वह परीक्षा है। इतना सब कहा, लेकिन एकाध-दों बिंदु पर थोड़ी-सी जगह खाली छोड़ दी। अगर समझ में आ जाएगा शिष्य को, तो वह उन खाली जगहों को भर देगा। जो गुरु ने नहीं कहा था, सिर्फ इशारा करके छोड़ दिया था, शुरुआत की थी, पूर्णता नहीं की थी, वक्तव्य की सिर्फ झलक दी थी, लेकिन वक्तव्य पूरा का पूरा ठोस नहीं था अगर शिष्य समझ गया है तो जो ठोस नहीं था वह ठोस हो जाएगा। जो अधूरा था वह पूरा कर दिया जाएगा। शिष्य अगर गुरु के खाली छोड़े गये रिक्त स्थानों को भर दे, तो ही समझो कि समझा। अगर उतना ही दोहरा दे जितना गुरु ने कहा, तो यह तो तोते भी कर सकते हैं, यह तो यांत्रिक होगा।
इसलिए एकाध-दो बातें अष्टावक्र छोड़ गये हैं। बुद्ध ने भी वह किया है। समस्त गुरुओं ने वही किया है, एकाध दो बात छोड़ देंगे। जो नहीं समझा है, वह उनको तो पूरा कर ही नहीं सकता। असंभव है। इसका कोई उपाय ही नहीं कि वह उन्हें पूरा कर सके| इसको किसी भी चालबाजी से पूरा नहीं किया जा सकता, किसी भी बौद्धिक व्यवस्था से पूरा नहीं किया जा सकता। अनुभव ही भर सकता है उन रिक्त स्थानों को। और जनक ने उनको भर दिया। वही धन्यवाद है।
एक और बात, अष्टावक्र के इन सारे सूत्रों का सार -निचोड़ है -श्रवणमात्रेण। जनक ने कुछ किया नहीं है, सिर्फ सुना है। न तो कोई साधना की, न कोई योग साधा, न कोई जप-तप किया, न यज्ञ-हवन, न पूजा-पाठ, न तंत्र, न मंत्र, न यंत्र, कुछ भी नहीं किया है। सिर्फ सुना है। सिर्फ सुनकर ही जाग गये। सिर्फ सुनकर ही हो गया श्रवणमात्रेण।
अष्टावक्र कहते हैं कि अगर तुमने ठीक से सुन लिया तो कुछ और करना जरूरी नहीं करना पड़ता है, क्योंकि तुम ठीक से नहीं सुनतेतुम कुछ का कुछ सुन लेते हो| कुछ छोड़ देते हो, कुछ जोड़ लेते हो; कुछ सुनते हो कुछ अर्थ निकाल लेते हो, अनर्थ कर देते हो। इसलिए फिर कुछ करना पड़ता है। कृत्य जो है, वह श्रवण की कमी के कारण होता है, नहीं तो सुनना काफी है। जितनी प्रगाढ़ता से सुनोगे, उतनी ही त्वरा से घटना घट जाएगी। देरी अगर होती है, तो समझना कि सुनने में कुछ कमी हो रही है। ऐसा मत सोचना कि सुन तो लिया, समझ तो लिया, अब करेंगे तो फल होगा। वहीं बेईमानी कर रहे हो तुम। वहां तुम अपने को फिर धोखा दे रहे हो। अब तुम कह रहे हो कि अब करने की बात है, सुनने की बात तो हो गयी।
मेरे पास एक सर्वोदयी नेता आते हैं। के हैं, जिंदगी भर सेवा की है, भले आदमी हैं। एक-दो