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ठीक भी है, इस संवाद का प्रारंभ भी जनक से हुआ था और अंत भी जनक पर हो। जिशासा जनक ने की थी कि हे प्रभु, मुझे जीवन का सार क्या है, सत्य क्या है, वह बताएं। अंत भी जनक पर ही होना चाहिए। जो पूछा था, मिल गया। जितना पूछा था, उससे ज्यादा मिल गया। जो जानना चाहा था, वह जना दिया गया है। और जिसका स्वप्न में भी जनक को स्मरण न होगा, सुषुप्ति में भी जिसकी तरंग कभी न उठी होगी, वह सब भी उंडेल दिया गया। क्योंकि गुरु जब देता है, तो हिसाब से नहीं देता। शिष्य के मांगने की सीमा होगी, गुरु के देने की क्या सीमा है! शिष्य के प्रश्न की सीमा होगी, गुरु का उत्तर असीम है। और जब तक असीम उत्तर न मिले, तब तक सीमित प्रश्नों के भी हल नहीं होते हैं। सीमित प्रश्न भी असीम उत्तर से हल होता है।
थोड़ा-सा पूछा था जनक ने, अष्टावक्र ने खूब दिया है। दो बूंद से तृप्ति हो जाती जनक की, ऐसा उसका प्रश्न था, अष्टावक्र ने सागर उंडेल दिया है।
इस बात को भी समझ लेना कि यह जीवन का एक परम आधारभूत नियम है कि परमात्मा के इस जगत में कंजूसी नहीं है, कृपणता नहीं है। जहां एक बीज से काम चल जाए, वहां देखते हैं, वृक्ष पर करोड़ बीज लगते हैं। जहां एक फूल से काम चल जाए, वहां करोड़ फूल खिलते हैं। जहां एक तारा काफी हो, वहा अरबों-खरबों तारे हैं। जीवन का एक आधारभूत नियम है, कंजूसी नहीं है। वैभव है, महिमा है। इसीलिए तो हम परमात्मा को ईश्वर कहते हैं। ईश्वर का अर्थ होता है, ऐश्वर्यवान। जरूरत पर समाप्त नहीं है, जरूरत से ज्यादा है, तो ऐश्वर्य। जब हम कहते हैं किसी व्यक्ति के पास ऐश्वर्य है, तो इसका मतलब यह होता है कि आवश्यकता से ज्यादा है। आवश्यकता पूरी हो जाये तो कोई ऐश्वर्य नहीं होता। इतना हो कि तुम्हारी समझ में न पड़े कि अब क्या करें, आवश्यकताएं सब कभी की पूरी हो गयीं, अब यह जो पास में है इसका क्या उपयोग हो, तब ऐश्वर्य है। इस अर्थ में तो शायद कोई आदमी कभी ईश्वर नहीं होता है। ईश्वर ही बस ईश्वर है। परम ऐश्वर्य है। कहीं जरा भी कृपणता नहीं। और जब किसी आत्मा का इस परम ऐश्वर्य से मेल हो जाता है, तो इस परम ऐश्वर्य की ध्वनि उस आत्मा में भी झलकती है।
अष्टावक्र ने उंडेल दिया। तुम्हें कई बार लगा होगा, इतना अष्टावक्र क्यों कह रहे हैं, यह तो बात जरा में हो सकती थी। लेकिन जो जरा में हो सकता है, उसको भी परमात्मा बहुत रूपों में करता है। जो संक्षिप्त में हो सकता है, उसको भी विराट करता है। विस्तार देता है। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है, विस्तार। जो विस्तीर्ण होता चला जाता है। ब्रह्मचर्चा भी ब्रह्म जैसी है। पत्ते पर पत्ते निकलते आते हैं। शाखाओं में प्रशाखाएं निकलती आती हैं। प्रश्न तो बीज जैसा था, उत्तर वृक्ष जैसा है। होना भी ऐसा ही चाहिए।
अब इस परम सौभाग्य के लिए जनक धन्यवाद कर रहे हैं। धन्यवाद शब्द ठीक नहीं। धन्यवाद शब्द से काम न चलेगा। धन्यवाद शब्द बहुत औपचारिक होगा। इसलिए कैसे धन्यवाद दें! तो एक ही उपाय है कि गुरु के सामने यह निवेदन कर दें कि जो तुमने कहा, वह व्यर्थ नहीं गया। तुम्हारा श्रम सार्थक हुआ है। तुम्हारा श्रम सृजनात्मक हुआ है। मैं भर गया हूं। यह सुगंध उठे जनक से कि