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पास घूम रही होगी, एक मुखौटा मिल गया। तो उसने उल्टा-पलटा, खूब उल्टा-पलटा। उसको कुछ समझ में न आये कि पीछे तो कोई है ही नहीं। उल्टती-पलटती गई, आखिर उसने कहा, हद हो गई। इतना बड़ा चेहरा और भेजा बिलकुल नहीं! भीतर कुछ है ही नहीं? यह जो ईसप की लोमड़ी है, यह भी ज्यादा समझदार रही होगी उस बहादुरशाह के द्वारपाल से।
और जब गालिब गया तो बहादुरशाह ने उसे बड़े सम्मान से अपने पास ही बिठाया। और भी मेहमान थे। बहादुरशाह के मन में बड़ी कद्र थी कविता की। खुद भी कवि था। कोई बहुत बड़ा कवि तो नहीं लेकिन फिर भी कवि था। और कविता का बड़ा आदर था मन में। लेकिन बड़ा हैरान हुआ जब भोजन परोसा गया और गालिब उठा-उठाकर मालपुण्न्दू बर्फियां अपने कोट को छुलाने लगा पगड़ी को छलाने लगा तो वह जरा चौंका। ऐसे तो कवि झक्की होते हैं मगर यह क्या कर रहा है? और न केवल इतना, गालिब कहने लगा, ले कोट, खा। ले पगड़ी, खा। खूब मन भरकर खा|
बहादुरशाह ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? ज्यादा तो नहीं पी गये हैं? पियक्कड़ तो था। सोचा ज्यादा पी गया हो। वह यह क्या कर रहा है? गालिब ने कहा, नहीं, पीया बिलकुल नहीं हूं,लेकिन मैं आया ही नहीं हूं। ये कपड़े ही आये हैं। ये ही भोजन करें। निमंत्रण आप) भला मुझे भेजा हो द्वारपाल ने मुझे प्रविष्ट नहीं होने दिया है। ये कपड़े ही भीतर आये हैं। मैं तो आया ही नहीं। मैं तो अपमानित बाहर से घर लौटा दिया गया हूं।
ये आदमियों के दरबार हैं। तुम ईश्वर के दरबार को भी आदमियों का दरबार समझते हो? वहां तुम जैसे भी जाओगे वैसे ही स्वीकार हो जाओगे। यह अकड़ छोड़ो। यह बात ही व्यर्थ है कि पहले मैं अपने को जान लूं र फिर मजा रहेगा।
और दूसरी बात खयाल रखो कि तुम बिना उससे मिले अपने को जान न पाओगे। अब और थोड़ी अड़चन है। क्योंकि उससे मिलने का अर्थ क्या है? उससे मिलने का अर्थ ही यही है, स्वयं की आत्यंतिक सत्ता से मिलना। परमात्मा कुछ अलग थोड़े ही बैठा है। कि कहीं बैठा है, तुम चले गये दवार पर दस्तक दे दी, भीतर बुला लिये गये| परमात्मा भीतर बैठा है। जब तुम स्वयं में जाओगे तभी उसमें जाओगे। वहीं उसका दरबार है -तुम्हारे स्वभाव में।
तो तुम स्वयं को जान लो और फिर परमात्मा के पास जाओ, यह तो बात हो ही नहीं सकती। स्वयं को जाना कि परमात्मा को जान लिया। परमात्मा को जान लिया कि स्वयं को जान लिया। स्वयं को जान लेना और परमात्मा को जान लेना दो बातें नहीं हैं, एक ही घटना है। एक ही घटना को कहने के दो ढंग हैं।
तो यह तो तुम बांधना ही मत खयाल अपने मन में कि पहले स्वयं को जान लेंगे, फिर जायेंगे। तो तुम स्वयं को भी न जान सकोगे और अभी तुमने स्वयं को जो समझा है कि यह मैं हूं वह तो तुम हो ही नहीं। किसी ने समझा है मैं देह हूं,किसी ने समझा है मैं मन हूं,किसी ने समझा है कि हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। किसी ने समझा कि ब्राह्मण, शूद्र; किसी ने समझा गोरा, काला, किसी ने समझा जवान, का। यह तुम कुछ भी नहीं हो। यह तो मन और शरीर का ही सब जोड़ है।