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बनोगे तो बन न पाओगे ।
मैं तुमसे कहता हूं तुम जैसे हो ऐसे ही सब घावों से भरे, धूलि - धूसरित, गंदे, कुरूप, अज्ञानी, ऐसे ही पुकार उठो। ऐसे ही चल पड़ो। तुम अंगीकार हो। उसने तुम्हें अंगीकार किया ही है। तुम चोर हो तो भी अंगीकार हो। तुम बेईमान हो तो भी अंगीकार हो। क्योंकि तुम कैसे हो यह कोई शर्त ही नहीं है, तुम हो इतना काफी है। सच तो यह है, अगर उसने तुम्हें अंगीकार न किया होता तो तुम हो ही न सकते थे। उसके बिना सहारे के तुम कुछ भी न हो सकते। चोर भी न हो सकते।
मैं तुमसे कहता हूं, जब तुम चोरी करने जा रहे हो तब भी वही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। जब तुम पाप करने गये हो तब भी उसके ही सहारे गये हो। अपने सहारे तो तुम कहीं भी नहीं जा सकते। तुम अपंग हो। तुम सदा उसके ही धनुष पर तीर बनकर चढ़े हो। तुमने कोई भी लक्ष्य भेदे हों, सभी लक्ष्यों में उसकी ही ऊर्जा है।
ऐसा जिस दिन जानोगे, उस दिन फिर ये बातें न करोगे। फिर आदमी का तर्क ! आदमी सोचता है, पहले कुछ इंतजाम तो कर लूं। व्यवस्था जुटा लूं। सब भांति योग्य हो जाऊं। इसलिए तो तुम दरबार कह रहे हो। यह दरबार नहीं है परमात्मा का । दरबार ! तो तुम फिर राजाओं की, सम्राटों की बातें भीतर ले आये। वहां तैयारी चाहिए। वहां तुम्हें स्थान नहीं मिलता, तैयारी को स्थान मिलता है।
मिर्जा गालिब के जीवन में उल्लेख है। बहादुरशाह ने निमंत्रण दिया है। और भी नगर के प्रतिष्ठित लोग आमंत्रित हुए हैं। गालिब को भी निमंत्रित किया है। लेकिन गरीब है गालिब | उधारी में दबा है। कपड़े -लत्ते पास नहीं। बड़ा संकोच से भरा है। फिर सोचने लगा मन ही मन कि मुझे निमंत्रण दिया है तो अब जैसा हूं वैसा जाऊंगा। मित्रों ने कहा कि नहीं, ऐसे मत जाओ । मित्र कोट-कमीज मांग लाये, जूते माग लाये, सब सामान इकट्ठा कर दिया कि यह पहनकर चले जाओ । गालिब का सोच में पड़ गया, ये कपड़े पहनूं न पहनूं? अपने कपड़े अपने हैं, दूसरे के दूसरे के हैं। कितने ही सुंदर हों, उधार हैं। यह झूठ क्यों आरोपण करूं?
हिम्मत करके अपने ही मैले -कुचैले पुराने कपड़े पहने चला गया। पर वही हुआ जो मित्रों ने कहा था। द्वारपाल ने भीतर प्रविष्ट ही न होने दिया। उसने कहा, भाग यहां से। द्वारपाल तो उसके हाथ में जो निमंत्रण-पत्र था वह भी छुड़ाने लगा। उसने कहा, तू किसी का चुरा लाया होगा। ऐसे आदमियों को सम्राट का कहीं निमंत्रण मिलता है ? तू किसका निमंत्रण चुरा लाया? भाग यहां से दुबारा लौटकर यहां मत आना।
गालिब तो बहुत परेशान और अपमानित हुआ लेकिन समझ भी खूब आई। खूब हंसा भी मन | घर गया, वह जो उधार कपड़े थे, पहनकर टीम-टाम करके वापिस आ गया। वही द्वारपाल झुक-झुककर नमस्कार किया। कहा, मीर साहब, आइये। वह बड़ा हैरान हुआ कि क्या यह आदमी इतना भी नहीं देख सकता कि मैं वही हूं। लेकिन आदमी तो मुखौटे देखते आदमी आत्मायें थोडे
ही देखते हैं। आदमी तो पशुओं से भी गये-बीते हैं।
ईसप की कहानी है एक, कि एक लोमड़ी को एक मुखौटा मिल गया। किसी नाटक कंपनी के