________________
क्या हो जाता है? भीतर की तरंगें हैं जो गहरे में छूती हैं। कोई व्यक्ति तुम्हें धक्के मारकर हटाता है । कोई व्यक्ति तुम्हें किसी प्रबल आकर्षण में अपने पास खींच लेता है। किसी के पास सुख का स्वाद मिलता है। किसी के पास होने ही से लगता है कि तुम हलके हो गये; जैसे बोझ उतर गया। और किसी के पास जाने से ऐसा लगता है, सिर भारी हो आया; न आते तो अच्छा था। उदास कर दिया उसकी मौजूदगी ने । उसने अपने दुख, अपनी पीड़ायें, अपनी चिंतायें कुछ तुम पर भी फेंक दीं।
स्वाभाविक है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति तरंगित हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समस्तता को ब्राडकास्ट कर रहा है। उससे तुम बच नहीं सकते। उसके भीतर का गीत चारों वक्त चारों दिशाओं में आंदोलित हो रहा है। तुम उसके पास गये कि तुम पकड़ोगे उसके गीत को । अगर गीत बेसुरा है तो बेसुरेपन को पकड़ोगे। अगर गीत शास्त्रीय संगीत में बंधा है तो डोलोगे, मस्त हो जाओगे ।
हर व्यक्ति का स्वाद है। सत्संग का इसीलिए इतना मूल्य है। किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठ जाना, जो शांत हो गया है। तो उससे कभी तुम्हें झलक मिलेगी अपने भविष्य की कि ऐसा कभी मेरे जीवन में भी हो सकता है। जो एक के जीवन में हुआ, दूसरे के जीवन में क्यों नहीं हो सकता ? और स्वाद लेते-लेते ही तो आकांक्षा उठती है, अभीप्सा उठती है ।
सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते व्यवहारेऽपि शांतधीः ।।
ज्ञानी व्यवहार में भी, साधारण व्यवहार में भी तुम उसे पाओगे सदा सुख से आंदोलित, `आनंदमग्न, मस्ती से भरा । वह बैठा भी होगा तो तुम पाओगे कि उसके पास कोई अलौकिक ऊर्जा नाच रही है। उसके पास किसी ओंकार का नाद है। उसके आसपास कोई अलौकिक संगीतज्ञ, कोई गंधर्व गीत गा रहे हैं।
और अज्ञानी तो जब तुम्हें सुख में भी बैठा हुआ मालूम पड़े तब भी तुम पाओगे, नये दुखों की तैयारियां कर रहा है। अज्ञानी अपने सुख के समय को भी दुखों के बीज बोने में ही तो व्यतीत करता है। और तो क्या करेगा? जब सुख होता है तो वह दुख के बीज बोता है। वह कहता है, अब बोलो, मौका आया है, फसल बो लो। थोड़ा समय मिला है, कर लो इसका उपयोग। लेकिन उपयोग अज्ञानी अज्ञानी की तरह ही तो करेगा न ! ज्ञानी दुख में भी सुख के बीज बोता ।
हंसकर दिन काटे सुख के
हंस- खेल काट फिर दुख के दिन भी
मधु का स्वाद लिया है तो
विष का भी स्वाद बताना होगा
खेला है फूलों से वह
शूलों को भी अपनाना होगा कलियों के रेशमी कपोलों को तूने चूमा है तो फिर
अंगारों को भी अधरों पर धरकर रे मुसकाना होगा
मूढ़ कौन, अमूढ़ कौन!
335