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जीवन का पथ ही कुछ ऐसा जिस पर धूप-छांव संग रहती सुख के मधुर क्षणों के संग ही बढ़ता है चिर दुख का क्षण भी हंसकर दिन काटे सुख के
हंस-खेल काट फिर दुख के दिन भी वह जो ज्ञानी है, वह दुख में भी सुख की ही याद करता। वह कहता है, सुख के दिन सुख से काटे, अब दुख के दिन भी सुख से काट। सुख के दिन नाचकर काटे, अब दुख के दिन भी नाचकर ही काट। सुख के दिन प्रार्थना में काटे, अब दुख के दिन भी प्रार्थना में ही रूपांतरित होने दे।
हंसकर दिन काटे सुख के
हंस-खेल काट फिर दुख के दिन भी अज्ञानी दुख का अभ्यस्त हो जाता है। जब सुख होता है तब सुख से भी नये दुख पैदा करता है। मैंने सना है कि एक बार ऐसा हआ कि एक गरीब दर्जी को लाटरी मिल गई। हमेशा भरता रहता था लाटरी। हर महीने एक रुपया तो लाटरी में लगाता ही था वह। ऐसा वर्षों से कर रहा था। वह उसकी आदत हो गई थी। उसमें कुछ चिंता की बात भी न थी। हर एक तारीख को एक रुपये की टिकट खरीद लेता था। ऐसा वर्षों से किया था। एक बार संयोग लग गया और मिल गई लाटरी-कोई दस लाख रुपये। जब लाटरी की खबर मिली और आदमी दस लाख रुपये लेकर आया तो उसने कहा, बस अब ठीक। उसने उसी वक्त दूकान में ताला लगाया, चाबी कुएं में फेंक दी। दस लाख रुपये लेकर वह तो कूद पड़ा संसार में। अब कौन दर्जी का काम करे! साल भर में दस लाख तो गये ही, स्वास्थ्य भी गया। पुरानी गरीब की जिंदगी की व्यवस्था, वह भी सब अस्तव्यस्त हो गई। पत्नी से भी संबंध छूट गया, बच्चे भी नाराज हो गये। और उसने तो वेश्यालयों में और शराबघरों में और जुआघरों में...सोचा कि सुख ले रहा है। जब साल भर बाद आखिरी रुपया भी हाथ से चला गया तब उसे पता चला कि इस साल मैं जितना दुखी रहा, इतना तो पहले कभी भी न था। यह भी खूब रहा। ये दस लाख तो जैसे जन्मों-जन्मों के दुख उभारकर दे गये। ये दस लाख तो ऐसे अब दुखस्वप्न हो गया।
किसी तरह जाकर फिर चाबी वगैरह बनवाई। अपनी दूकान खोलकर बैठा। लेकिन पुरानी आदत, तो एक रुपया महीने की लाटरी फिर लगाता रहा। संयोग की बात! एक साल बाद फिर वह लाटरीवाला आदमी खड़ा हो गया। उस दर्जी ने कहा, अरे नहीं, अब नहीं। अब क्षमा करो। क्या फिर मिल गई? उस आदमी ने कहा, चमत्कार तो हम को भी है, हम भी हैरान हैं कि फिर मिल गई। उसने कहा, मारे गये। अब रुक भी नहीं सकता वह, दस लाख फिर मिल गये। लेकिन कहा कि मारे गये। घबड़ा गया कि फिर मिल गई, अब फिर उसी दुख से गुजरना पड़ेगा। अब फिर वेश्यालय, फिर शराबघर, फिर जुआघर, फिर वही परेशानी। अब दिन सुख के कटने लगे थे, फिर से अपनी दूकान चलाने लगा था। अब यह फिर मुसीबत आ गई।
आदमी अगर अज्ञानी हो तो जो भी आये वही मुसीबत है। तुम अक्सर पाओगे कि तुम्हें जब सुख के क्षण आते हैं तो तुम उन सुख के क्षणों को भी दुख में रूपांतरित कर लेने में कुशल हो गये हो।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5