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अब बैठकर कम से कम बैठे हो तो बैठ ही जाओ। सुखमास्ते । मगर उसमें भी पैर हिला रहे हैं।
बुद्ध बड़ा ध्यान रखते थे। एक बार एक आदमी उन्हीं के सामने बैठा सुन रहा था उनका प्रवचन, और अंगूठा हिलाने लगा अपने पैर का । उन्होंने प्रवचन रोक दिया और कहा कि सुन, यह अंगूठा क्यों हिल रहा है? जब उन्होंने कहा तो उस आदमी को ख्याल आया, नहीं तो उसको तो ख्याल ही कहां था? जैसे ही बुद्ध ने कहा यह अंगूठा क्यों हिल रहा है, अंगूठा रुक गया। तो बुद्ध ने कहा, अब यह भी बता कि अंगूठा रुक क्यों गया? तो उसने कहा, मैं इसमें क्या कहूं? मुझे कुछ पता ही नहीं। तो बुद्ध ने कहा, तेरा अंगूठा और तुझे पता नहीं तो क्या मुझे पता? तेरा अंगूठा हिल रहा है और तुझे पता नहीं है, तो तू होश में बैठा है कि बेहोश बैठा है? यह अंगूठा तेरा है या किसी और का है? तुझे कहना ही पड़ेगा कि क्यों हिल रहा था। वह कहने लगा, मुझे आप क्षमा करें! मगर मैं कोई उत्तर देने में असमर्थ हूं। मुझे पता ही नहीं ।
जब तुम भीतर से बेचैन हो तो उसका कंपन तुम्हारे जीवन पर प्रगट होता रहता है । अंगूठा ऐसे ही नहीं हिल रहा है। भीतर जो ज्वर भरा है, बेहोशी भरी है। भीतर तुम उबल रहे हो। वह उबलन कहीं न कहीं से निकल रही है। भीतर भाप ही भाप इकट्ठी हो गई है तो केतली का बर्तन ऊपर-नीचे हो रहा है । भाप भरी है तो कहीं न कहीं से तो निकालोगे। कहीं पीठ खुजाओगे, कहीं सिर खुजाओगे, कहीं हाथ हिलाओगे, कहीं जम्हाई लोगे, कहीं अंगूठा हिलाओगे, करवट बदलोगे। कुछ न कुछ करोगे । क्योंकि इस करने में थोड़ी-सी ऊर्जा बाहर जायेगी और थोड़ा हल्कापन लगेगा। तुम ऊर्जा से भरते जा रहे हो ।
छोटे बच्चों को देखते ? बैठ ही नहीं सकते। ऊर्जा भरी है। बैठेंगे तो भी तुम पाओगे... . एक मां अपने बच्चे से कह रही थी कि अब तू बैठ जा । देख, छः दफा मैं तुझसे कह चुकी हूं। अब अगर नहीं बैठा तो यह सातवीं वक्त है। भला नहीं फिर अब तेरा। तब बच्चा समझ गया। बच्चे समझ जाते हैं ' कि कब आ गया आखिरी मामला । कि अब मां आखिरी घड़ी में है, अब झंझट खड़ी होगी। जब तक वह देखता है कि अभी चलेगा तब तक चला रहा था। तो उसने कहा, अच्छी बात है, बैठा जाता हूं। लेकिन याद रखना, भीतर से नहीं बैठूंगा। बाहर से ही बैठ सकता हूं। तो बैठा जाता हूं। वह बैठ गया कुर्सी पर हाथ-पैर बिलकुल स्थिर करके। लेकिन उसने कहा, एक बात बता दूं कि भीतर से नहीं बैठा हूं । भीतर से तो कोई ऐसे कैसे बैठ सकता है ?
भीतर से बैठ जाओ तो तुम्हारे जीवन में सुख की एक आभा तैरने लगती है। ऐसा नहीं कि तुम्हीं को सुख मालूम होगा, तुम्हारी छाया में भी जो आ जायेंगे उनको भी सुख मालूम होगा। तुम्हारे पास जो आ जायेंगे वे भी तुम्हारी शीतलता से आंदोलित हो जायेंगे।
तुम्हें भी कई बार लगता होगा, किसी व्यक्ति के पास जाने से तुम उद्विग्न हो जाते हो। और किसी व्यक्ति के पास जाने से तुम शांत हो जाते। किसी व्यक्ति के पास जाने का मन बार-बार करता है। और कोई व्यक्ति रास्ते पर मिल जाये तो तुम बचकर निकल जाना चाहते हो । शायद साफ-साफ तुमने कभी सोचा भी न हो कि ऐसा क्या है? कभी तो ऐसा होता है कि व्यक्ति से तुम पहले कभी मिले नहीं थे और पहले ही मिलन में दूर हटना चाहते हो, भागना चाहते हो। और ऐसा भी होता है कि कभी पहले मिलन में किसी पर आंख पड़ती है और उसके हो गये। सदा के लिए उसके हो गये।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5