SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तरंगें उठती हैं। बीच में अचानक अल्फा तरंगें खो गईं एक सेकेंड को। और उसने गौर से देखा तो फकीर की श्वास गड़बड़ा गई थी। फिर फकीर सम्हलकर बैठ गया, फिर उसने श्वास व्यवस्थित कर ली। फिर तरंगें ठीक हो गईं। फिर अल्फा तरंगें आनी शुरू हो गईं। - झेन फकीर कहते हैं, श्वास इतनी धीमी होनी चाहिए कि अगर तुम अपनी नाक के पास किसी पक्षी का पंख रखो तो वह कंपे नहीं। इतनी शांत होनी चाहिए श्वास कि दर्पण रखो तो छाप न पड़े। ऐसी घड़ी आती ध्यान में, जब श्वास बिलकुल रुक गई जैसी हो जाती है। कभी-कभी साधक घबड़ा जाता है कि कहीं मर तो न जाऊंगा! यह हो क्या रहा है? घबड़ाना मत, कभी ऐसी घड़ी आये-आयेगी ही—जो भी ध्यान के मार्ग पर चल रहे हैं, जब श्वास, ऐसा लगेगा चल ही नहीं रही। जब श्वास नहीं चलती तभी मन भी नहीं चलता। वे दोनों साथ-साथ जुड़े हैं। - ऐसा ही पूरा शरीर जुड़ा है। जब तुम शांत होते हो तो तुम्हारा शरीर भी एक अपूर्व शांति में डूबा होता है। तुम्हारे रोयें-रोयें में शांति की झलक होती है। तुम्हारे चलने में भी तुम्हारा ध्यान प्रगट होता है। तुम्हारे बैठने में भी तुम्हारा ध्यान प्रगट होता है। तुम्हारे बोलने में, तुम्हारे सुनने में। ध्यान कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि एक घड़ी बैठ गये और कर लिया। ध्यान तो कुछ ऐसी बात है कि जो तुम्हारे चौबीस घंटे के जीवन पर फैल जाता है। जीवन तो एक अखंड धारा है। घड़ी भर ध्यान और तेईस घड़ी ध्यान नहीं, तो ध्यान होगा ही नहीं। ध्यान जब फैल जायेगा तुम्हारे चौबीस घंटे की जीवन धारा पर...। ध्यानी को तुम सोते भी देखोगे तो फर्क पाओगे। उसकी निद्रा में भी एक परम शांति है। यही है यह सूत्रः सुखमास्ते सुखं शेते सुखामायाति याति च। .. सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते व्यवहारेऽपि शांतधीः।। वह जो ज्ञानी है, शांतधीः, जिसकी प्रज्ञा शांत हो गई है, वह व्यवहार में भी सखपूर्वक बैठता है। • तुम तो ध्यान में भी बैठो तो सुखपूर्वक नहीं बैठ पाते। तुम तो प्रार्थना भी करते हो तो व्यग्र और बेचैन होते हो। ज्ञानी व्यवहार में भी सुखपूर्वक बैठता है। उसका सुखासन खोता ही नहीं। यह सुखासन कोई योग का आसन नहीं है, यह उसकी अंतर्दशा है। सुखमास्ते—वह सुख में ही बैठा हुआ है। सुखासन। सुखमास्ते। सुख में ही बैठा हुआ है। सुखं शेते सुखमायाति याति च। उसके सारे जीवन का स्वाद सुख है। तुम कहीं से उसे चखो, तुम सुख ही सुख चखोगे। बुद्ध से किसी ने पूछा कि आपके जीवन का स्वाद क्या? तो बुद्ध ने कहा, जैसे सागर को तुम कहीं से भी चखो तो खारा, ऐसे तुम बुद्धों को कहीं से भी चखो तो आनंद, शांति, प्रकाश। तुम मुझे कहीं से भी चखो। 'सुखपूर्वक बैठता है।' तुम ही तो बैठोगे न! तुम अगर बेचैन हो तो तुम्हारे बैठने में भी बेचैनी होगी। तुम देखते आदमियों को? बैठे हैं कुर्सी पर तो भी पैर हिला रहे हैं। अब बैठे हो—चल रहे होते, पैर हिलते तो ठीक थे। मृढ़ कौन, अमूढ़ कौन! 333 333 |
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy