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एक बार तुम शिष्य बन गये... और जब तुम शिष्य बनते हो तो खयाल रखना, अगर बुद्धि से बने तो तुम टूटोगे; आज नहीं कल छूटोगे। बुद्धि से बने तो कोई भी आलोचना तुम्हें अलग कर देगी। हृदय से बने तो कोई आलोचना तुम्हें अलग न कर पायेगी; हर आलोचना तुम्हें और मजबूत कर जायेगी। हर तूफान और आंधी तुम्हारी जड़ों को और जमा जायेगी। हर चुनौती तुम्हारे हृदय को और भी मजबूत, दृढ़ कर जायेगी। चुनौतियों में ही तो पता चलेगा कि जड़ें भी हैं या नहीं !
सदगुरु का अर्थ होता है कि तुम तो मिटे, अब वही बचा। फिर तो तुम्हारी श्वास- श्वास में वही प्रविष्ट हो जाता है।
रात भर दीदा-नमनाक में लहराते रहे सांस की तरह से आप आते रहे जाते रहे
रात है अभी सोये हो तुम । जागने में समय लगेगा। सदगुरु का अर्थ है, नींद में ही जिसका हाथ पकड़ लिया। अब जो तुम्हारी श्वासों की श्वास हो गया। अब कोई लाख निंदा करे, लाख आलोचना करे, लाख विरोध करे, कुछ अंतर न पड़ेगा। अंतर पड़ जाये तो भी अच्छा। तुम किसी और को चुन लेना । शायद तुमने जिसे चुन लिया था उससे हृदय मेल नहीं खाया था ।
और असली सवाल तो सत्य पर पहुंचना है। तुम किसको चुनकर पहुंचते हो यह बात गौण है। तुम यात्रा बैलगाड़ी से करते हो, कि रेलगाड़ी से, कि मोटर गाड़ी से, कि हवाई जहाज से, कि पैदल जाते हो, यह बात फिजूल है। तुम पहुंच जाओ सत्य पर ।
तो मैं तुमसे कहता हूं, एक सदगुरु की दूसरे सदगुरु की आलोचना बड़ी हितकर है, कल्याणकारी है। जो उसमें डावांडोल हो जाता है, उसके भी लाभ में है, जो उसमें मजबूती से जम जाता है, उसके भी लाभ में है। वह जो अंधड़ उठता है आलोचना से, उसमें जो उखड़ गया वह इतना ही कहता है कि अभी हमारी यहां जड़ें न थीं, कहीं और जड़ें जमायेंगे। ठीक ही हुआ। जल्दी झंझट मिटी । कहीं और ' जड़ें जमा लेंगे। कोई और भूमि हमारी भूमि होगी ।
जो उस अंधड़ में और जमकर खड़ा हो गया वह बलवान हो गया। उसने कहा, अब अंधड़ भी आयें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अब कोई सदगुरु से मुझे अलग न कर सकेगा। लेकिन तुम हो कमजोर । तुम ऐसे अधूरे-अधूरे, कुनकुने कुनकुने हो । जरा किसी ने आलोचना कर दी, तुम चारों खाने चित्त ! किसी ने कुछ कह दिया तुम्हारे गुरु के खिलाफ, तुम्हें भी बात जंचने लगी। उसी लिए तो तुम नाराज हो जाते हो ।
दुश्मन
नाराज होने का कारण क्या है ? किसी ने कह दिया खिलाफ, तुम्हें भी जंचने लगा कि बात तो ठीक है। अब तुम घबड़ाये । वह जो जड़ें उखड़ने लगी, तो तुम घबड़ाये। तुम उस आदमी को की तरह देखने लगे। यह सुरक्षा कर रहे हो तुम। नहीं, ऐसी सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं । जाओ । घूमो। सुनो, समझो। बहुतों को सुनकर तुम अगर मेरे पास वापिस लौट आओगे तो ही आये। | तुमने किसी को सुना नहीं, आलोचना नहीं सुनी मेरी, मेरा विरोध नहीं सुना और इसलिए तुम यहां बने हो, यह बना होना कुछ बहुत काम का नहीं होगा।
शिष्यों को आलोचना से भी लाभ ही होता है। शिष्य को किसी चीज से हानि होती ही नहीं। जो झुक गया है हृदयपूर्वक, वह हर चीज से लाभान्वित होता है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5