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इसका परिणाम यह होता है अंततः कि जिनको कृष्ण की बात जंच जाती है, वे कृष्ण के मार्ग पर चल पड़ते हैं, जिनको महावीर की बात जंच जाती है, वे महावीर के मार्ग पर चल पड़ते हैं। अगर दोनों कहते हैं कि वे भी ठीक कहते होंगे, मैं भी ठीक कहता हूं-अगर दोनों ऐसा कहें तो कोई किसी के मार्ग पर न चल पायेगा। लोग डांवांडोल खड़े रह जायेंगे, कहां जायें? और ये इतनी विपरीत बातेंअशरण-भावना, शरण-भावना। कहां जायें? महावीर कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं है, किसकी शरण जाते हो? बस, आत्मा है। ___तो महावीर को चुनें कि कृष्ण को चुनें? और महावीर खुद ही कहते हों कि कृष्ण भी ठीक होंगे, मैं भी ठीक हूं। तो तुम्हारी उलझन बढ़ेगी, घटेगी नहीं। महावीर को बहुत साफ होना चाहिए कि नहीं, मैं जो कहता हूं वही ठीक है, कोई और ठीक नहीं। ___इसके दो परिणाम होंगे। जिनको बात जंच जायेगी वे निश्चितमना महावीर के मार्ग पर चल सकेंगे। जिनको बात नहीं जंचेगी वे निश्चितमना कृष्ण के मार्ग पर चल पड़ेंगे। हानि इसमें जरा भी नहीं है। हानि तो महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों से होती है, जो कहते हैं, वह भी ठीक, यह भी ठीक; सब ठीक। सब ठीक में सब गलत हो जाता है। एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाये। ... लेकिन महावीर और कृष्ण राजनेता नहीं हैं, गांधी राजनेता हैं। लेकिन गांधी की बात तुम्हें भी जंचती है। सबको ठीक कहते हैं। यही संत का भाव होना चाहिए। इसमें करुणा की तुम्हें चिंता ही नहीं है। शायद इसके पीछे भी कारण है। तुम भी चलना नहीं चाहते। यह सदी सत्य की तरफ जाना नहीं चाहती। इसलिए जो लोग भी सत्य की तरफ जाने के मार्ग को ढीला करवाते हैं वे तम्हें रुचते हैं। गांधी की बात जंचती है कि सब ठीक। ___इसका कुल परिणाम यह होता है कि तुम कहीं जाते नहीं। न कुरान, न गीता; न महावीर, न मोहम्मद, कुछ भी नहीं पकड़ते। तुम कहते हो, सभी ठीक हैं। जब सभी ठीक हैं तो पकड़ना क्या है? जाना कहां है? सभी के ठीक का एक ही परिणाम होता है, तुम किसी रास्ते पर नहीं जाते। चौरस्ते पर खड़े हो, और मैं तुमसे कहता हूं, चारों रास्ते ठीक हैं। इसका कुल परिणाम इतना होता है, तुम चौरस्ते पर खड़े रह जाते हो। मुझे कहना चाहिए कि एक रास्ता ठीक है और इससे मैं चला हूं, इससे मैं गया हूं। यह मेरा परिचित है। बाकी तीन मैंने जाने नहीं, मैं गया नहीं। गलत ही होंगे। पहुंचता है आदमी इस रास्ते में। मैं पहुंचकर कह रहा हूं।
फिर चौरस्ते पर लोग बंट जायेंगे। जिसको जिसकी बात जम जायेगी, जो जिसके साथ अपना तालमेल पायेगा, जिसके हृदय में जिसकी वीणा बजने लगेगी, जिसका हृदय जिसके प्रेम में डूब जायेगा, वह उस मार्ग पर चल पड़ेगा निश्चितमना। फिर वह लौटकर भी नहीं देखेगा कि बाकी तीन मार्गों का क्या हुआ। पृथ्वी पर तीन सौ धर्म हैं। तुम अगर तीन सौ धर्मों के बीच समन्वय जुटाते रहे, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम करते रहे, तुम कभी भी चलोगे नहीं। चौरस्ते पर खड़े-खड़े मरोगे।
इसलिए सदगुरु आलोचना करते हैं। निंदा उसमें जरा भी नहीं है। और करुणा है, गहन करुणा है। तुम चलो, यह प्रयोजन है। तुम कहीं पहुंचो, यह प्रयोजन है।
और अपना वक्तव्य बिलकुल साफ होना चाहिए। उसमें रत्ती भर भी संदेह की सुविधा नहीं होनी चाहिए। कबीर ने आलोचना की है, नानक ने आलोचना की है, अष्टावक्र ने आलोचना की है। तुम
सदगुरुओं के अनूठे ढंग
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