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________________ एकाध सदगुरु का नाम ले सकते हो, जिसने आलोचना न की हो ? वह सदगुरु ही नहीं। क्योंकि आलोचना का अर्थ ही केवल इतना है कि बाकी जो और रास्ते हैं, वह कह रहा है, वे रास्ते नहीं हैं, यह रास्ता है; ताकि तुम चुन सको। तुम वैसे ही उलझे खड़े हो – बीमार, रुग्ण, विक्षिप्त । तुम्हारी विक्षिप्तता और बढ़ानी है ? तुम्हारे मस्तिष्क को और विकृतियों से भरना है ? तो सदगुरु आलोचना करता है । निंदा तो जरा भी नहीं है वहां । निंदा का तो कोई प्रश्न नहीं है। निंदा तो व्यक्ति की तरफ होती है, आलोचना सिद्धांत की तरफ होती है। निंदा में दूसरा व्यक्ति बुरा यह बताने की चेष्टा होती है। आलोचना में उस मार्ग पर मत जाना...। है पूछते हो, 'कृष्णमूर्ति परम ज्ञानी होकर भी अन्य सदगुरुओं के कार्यों की निंदा, आलोचना करते हैं...?' तुम निंदा और आलोचना का ऐसा उपयोग कर रहे हो, जैसे वे पर्यायवाची हैं । निंदा व्यक्ति की तरफ उन्मुख होती है, आलोचना मार्ग की तरफ । और फिर तुम्हें इसकी चिंता में नहीं पड़ना चाहिए कि कृष्णमूर्ति आलोचना क्यों करते हैं । तुम्हें कृष्णमूर्ति से क्या लेना-देना? तुम्हें बात जंच जाये, चल पड़ो। बात न जंचे, छोड़ दो। दो सदगुरु अ एक-दूसरे की आलोचना करते हैं तो तुम अपना चुन लो कि तुम्हें किसकी बात जंचती है। मगर तुम बड़े होशियार हो। तुम यह चुन रहे हो कि ये दोनों आदमी गलत होने चाहिए क्योंकि आलोचना करते हैं । तुमने अपने को चुन लिया इन दोनों को चुनने की बजाय । तुम किसी मार्ग पर न गए। तुमने कहा, ये तो ठीक होने नहीं चाहिए। ये तो एक-दूसरे की आलोचना कर रहे हैं । सदगुरु कहीं आलोचना करते हैं? तुम एकाध सदगुरु का नाम तो बताओ, जिसने आलोचना न की हो। समय बीत जाता है, लोग भूल जाते हैं। समय बीत जाता है, लोग शास्त्रों को उलटकर भी देखते नहीं । तुम अष्टावक्र को सुन रहे हो अभी, तुम्हें खयाल नहीं आया कि अष्टावक्र से और गहरी आलोचना हो सकती है कोई? इससे ज्यादा प्रगाढ़ और कोई खंडन हो सकता है— ध्यान का, योग का, समाधि का, त्याग का, तप का, जप का, संन्यास का, स्वर्ग का, मोक्ष का ? इतनी प्रगाढ़ आलोचना ! ऐसी तलवार की धार ! एक-एक कोकाटे चले जाते हैं। लेकिन तुम्हारे प्रति करुणा के कारण है । अब तुम यह सोच लो कि अष्टावक्र को ज्ञान न हुआ होगा, नहीं तो यह आलोचना क्यों करते अगर ज्ञान हो जाता? तो तुम चूकोगे। तुम पहले से परिभाषायें मत बनाओ कि सदगुरु आलोचना नहीं करते। यह गलत स्थिति है । तुम सदगुरुओं का समय से लेकर आज तक का उल्लेख देखो और तुम पाओगे, उन सबने आलोचना की है और रूप से आलोचना की है। प्राची 1 महावीर और बुद्ध साथ-साथ जीये और एक-दूसरे की खूब आलोचना की । रत्ती भर भी संकोच नहीं बरता। क्योंकि रत्ती भर भी संकोच, वह जो पीछे आ रहा है उसको डांवांडोल कर जाता है। उन्हें बहुत स्पष्ट होना चाहिए । और फिर भी मैं तुमसे कहता हूं, सभी सदगुरु जहां पहुंचते हैं वह एक जगह है। जहां पहुंचना है वह तो एक है, लेकिन जिन मार्गों से पहुंचना है वे अनेक हैं। और जब सदगुरु किसी की आलोचना 300 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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