SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्तव्यतैव संसारो। __ जब तक तुम सोचते, ऐसा मेरा कर्तव्य है, ऐसा मुझे करना है; करना पड़ेगा, ऐसी मेरी जिम्मेवारी है। चार बच्चों का पिता हूं, पत्नी है, कर्तव्य है, पूरा करना है, तब तक तुम संसार में जी रहे हो। पत्नी छोड़कर मत भागो, बच्चे छोड़कर मत भागो। पत्नी और बच्चे में संसार नहीं है। इस सूत्र को समझो। ममेदं कर्तव्यं—मेरे को यह कर्तव्य है, ऐसे निश्चय का नाम संसार है। कर्तव्यतैव संसारो। जब तक कर्तव्य तब तक संसार। कर्तव्य को ही छोड़ दो। पत्नी को रहने दो, बच्चे को रहने दो। दफ्तर भी जाओ, दूकान भी जाओ, काम भी करो। कर्ता परमात्मा को बना दो, तुम कर्ता न रहो। तुम कहो, जो लीला तुझे दिखानी, जो अभिनय तूने दे दिया, जिस नाटक में पात्र बना दिया, पूरा कर देंगे। राम मत बनो। रामलीला के राम ही रहो। मंच पर जो खेल खेलने को कहा गया है उसे पूरा-पूरा कर दो। उसे परिपूर्ण हृदय से पूरा कर दो, लेकिन कर्ता की तरह नहीं। न तां पश्यन्ति सूरयः। जो ज्ञानी हैं वे कर्तव्य को देखते ही नहीं। उन्हें कोई कर्तव्य नहीं दिखाई पड़ता। जो परमात्मा करवाता है, वे करते हैं। जो नहीं करवाता, वे नहीं करते। उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं। इसलिए तो अष्टावक्र उन्हें कहता है स्वच्छंद। शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः। ऐसी चार उनकी लक्षणा है। शून्यकारा–वे अपने भीतर शून्य रहते हैं। बाहर हजार-हजार रूप धर लेते हैं, भीतर शून्य बने रहते हैं। क्रोध में उन्हें पाओ, रमण को भागते देखो डंडा लिए, तब भी भीतर शून्याकारा। कि गुरजिएफ को क्रोध से उबलते देखो...। गुरजिएफ के शिष्यों ने बहुत से संस्मरण लिखे हैं कि जब वह क्रुद्ध होता था तो तूफान-आंधी आ जाए ऐसा क्रुद्ध होता था। ऐसा लगता था, सब मिटा डालेगा। और क्षण भर में जैसे आंधी चली गई। और क्षण भर बाद उसे देखो तो पता ही न चलता कि वह कभी क्रोधित हो सकता है। __ और कभी-कभी तो गुरजिएफ गजब कर देता था; बड़ा कुशल अभिनेता था। दो आदमी बैठे हों तो एक आदमी को तो एक आंख से वह क्रोध दिखलाता और दूसरे आदमी को प्रेम दिखलाता। और दोनों जब बाहर मिलते तो उनमें विवाद छिड़ जाता कि यह आदमी अच्छा है कि बुरा। वह एक कहता, बड़ा खतरनाक है। मेरी तरफ ऐसा देख रहा था, जैसे मार डालेगा। और दूसरा कहता, मेरी तरफ उसने इतने प्रेम से देखा, तुम गलत बात कह रहे हो। कोई आदमी एक-एक आंख से अलग-अलग थोड़े ही देख सकता है। लेकिन इसकी संभावना है, क्योंकि तुम्हारे भीतर दो मस्तिष्क हैं और दोनों का अलग-अलग उपयोग हो सकता है। बायीं आंख अलग मस्तिष्क से चल रही है; दायें मस्तिष्क से चल रही है। दायीं आंख बायें मस्तिष्क से चल रही है। दोनों अलग हैं। दोनों का प्रयोग ठीक से कर लो तो दोनों का उपयोग किया जा सकता है। अभी पश्चिम में कुछ प्रयोग चलते हैं। अनूठे प्रयोग हैं, भविष्य में काम आयेंगे। अब तक 290 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy