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__ तुम किसी ज्ञानी पुरुष को किसी भी अवस्था में देखोगे तो वे ही सारी अवस्थाएं अज्ञान में भी होती हैं, इसको खयाल में रखना। ज्ञान में जो होता है वही सब अज्ञान में भी होता है। कारण अलग-अलग होते हैं, कारण में भेद होता है, लेकिन कार्य वही के वही होते हैं। करीब-करीब एक-सी घटनाएं घटती हैं। उन घटनाओं से ही तो तुम तौलोगे। कारण का तो तुम्हें कुछ पता नहीं है। भूल हो जाएगी। इस झंझट में पड़ना ही मत।
इसलिए मैं कहता हूं, तुम तो जहां तुम्हारा मन लग जाए, अनुमान जहां हो-अनुमान ही कहता हूं-जहां तुम्हें लगे कि हां, कुछ यहां हो सकता है, ऐसी तुम्हें थोड़ी-सी छाया प्रतीत हो, मालूम हो, रुक जाना। कोशिश करना। हिम्मत करना। प्रयोग करना।
अगर कुछ है वहां तो धीरे-धीरे तुम्हारा जीवन रूपांतरित होने लगेगा। धीरे-धीरे तुम्हारी नाव किनारे से छूटने लगेगी। बंधन कटने लगेंगे। धीरे-धीरे आनंद की तरंगें उठने लगेंगी। धीरे-धीरे एक नया लोक तुम्हारे भीतर अपने द्वार खोलने लगेगा।
खुलने लगें द्वार तो रुके रह जाना। न खुलें द्वार, कहीं और टटोलना। और जिस दिन तुम किसी सदगुरु को छोड़ो क्योंकि तुम्हारे द्वार नहीं खुल रहे हैं, उस दिन भी तय मत करना कि वह सदगुरु है या नहीं। क्योंकि कई बार यह होता है, तुम्हारे द्वार जहां न खुलें वहां किसी और के खुल जाते हों। कई बार यह होता है, जहां किसी और के द्वार न खुलें तुम्हारे खुल जाते हों। क्योंकि लोग भिन्न हैं। लोग बड़े भिन्न हैं। .. और कोई एक गुरु सभी का गुरु नहीं हो सकता। इतने भिन्न लोग हैं। बुद्ध के पास किसी के द्वार खुलते, महावीर के पास किसी के द्वार खुलते हैं। कृष्ण के पास किसी और के द्वार खुलते हैं। इसलिए तुम यह निर्णय ही मत करना। न जाने के पहले निर्णय करना, न छोड़ते वक्त निर्णय करना। तुम तो कहना, कोशिश करके देख लेते हैं। कुछ होने लगे, ठीक; रुक जायेंगे। कुछ न हो, धन्यवाद देकर हट जायेंगे। हटते वक्त भी धन्यवाद से ही भरा हुआ मन हो। हटते वक्त शिकायत से भरा हुआ मन न हो कि इतने दिन खराब गए। क्योंकि कुछ खराब जाता नहीं। वह जो गलत दरवाजों पर हमने दस्तक दी है, वे दस्तकें भी व्यर्थ नहीं जातीं। वे दस्तकें ही हमें ठीक दरवाजे पर ले जाती हैं।
तस्य आश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानन्ते। जान तो उन्हीं को वे ही लोग पायेंगे, जो उन्हीं की दशा को उपलब्ध हो जाते हैं।
'कर्तव्य ही संसार है और उस कर्तव्य को शून्याकार, निराकार, निर्विकार और निरामय ज्ञानी नहीं देखते हैं।'
ममेदं कर्तव्यं। शास्त्रों में एक वचन है—मेरे को यह कर्तव्य है। ममेदं कर्तव्यं, ऐसे निश्चय का नाम ही संसार है। जब तक तुम्हें लगता है, ऐसा मेरा कर्तव्य, ऐसा मुझे करना ही पड़ेगा, तब तक तुम संसार में हो। जिस दिन तुम्हें लगा कि मेरा क्या कर्तव्य ? जिसने सारे को रचा, उसका ही होगा। मैं तो थोड़ा-सा अपना पार्ट है जो दिया, अदा कर देता हूं। कर्तव्य नहीं, अभिनय। जिस दिन तुम कर्ता न होकर अभिनेता होकर जीने लगे, बस उसी दिन क्रांति घट गई।
कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः। शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः।।
निराकार, निरामय साक्षित्व
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