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________________ हो जाता है। आत्मा के उदभव के साथ ही चित्त झुक जाता है। ये जबर्दस्ती के झुकाव काम नहीं पड़ेंगे। यह सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा ___ मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा अब कोई दुख और पीड़ा में झुक जाये और तुम समझो कि नमाज पढ़ रहा है, कि पूजा कर रहा यह सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा ये अधिक लोग जो प्रार्थनाओं में झुक रहे हैं, गौर से देखना, दुख के कारण बोझ से दोहरे हुए जा रहे हैं। ये प्रार्थनायें नहीं हैं। इनमें प्रार्थनाओं का कोई जरा-सा भी स्फुरण नहीं है। प्रार्थनाओं की जरा-सी भी गंध नहीं है। दुख और पीड़ा में झुके हैं। डर, भय, कंपते हुए झुके हैं। यह आनंद-अनुभूति नहीं है। और न आनंद में हुआ समर्पण है, न अहोभाव में झुक गये सिर हैं ये। गौर से देखना, शरीर ही झुका है, मन अभी भी अकड़ा खड़ा है। और जबर्दस्ती मन को भी झुका दो तो भी कुछ न होगा; जब तक कि आत्मा का जागरण न हो। उस जागरण के सूत्र हैं ये। निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तष्णीं विषयदंतिनः। पलायंते न शक्तास्ते सेवंते कृतचाटवः।। 'वासनारहित पुरुषसिंह को देखकर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं, या वे असमर्थ होकर उसकी चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं।' भाग जाते हैं, या वे असमर्थ हो करन लगते हैं।' यह...यही पकड 'वासनारहित पुरुषसिंह को देखकर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं।' विषयरूपी हाथी कहा अष्टावक्र ने। क्योंकि दिखाई बहुत बड़े पड़ते हैं, बड़े हैं नहीं। एक लोमड़ी सुबह-सुबह निकली अपनी गुफा से। उगता सूरज! उसकी बड़ी छाया बनी। लोमड़ी ने सोचा, आज तो नाश्ते में एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी। छाया देखी अपनी तो स्वभावतः सोचा कि ऊंट से कम में काम न चलेगा। खोजती रही ऊंट को। ऊंट को खोजते-खोजते दोपहर हो गई। अब कहीं लोमड़ियां ऊंट को खोज सकती हैं! और खोज भी लें तो क्या करेंगी? ___ दोपहर हो गई, सूरज सिर पर आ गया तो उसने सोचा, अब तो दोपहर भी हुई जा रही है, नाश्ते का वक्त भी निकला जा रहा है। नीचे गौर से देखा, छाया सिकुड़कर बिलकुल नीचे आ गई। तो उसने सोचा, अब तो एक चींटी भी मिल जाये तो भी काम चल जायेगा। ये छायायें जो तुम्हारी वासना की बन रही हैं, ये बहुत बड़ी हैं। हाथी की तरह बड़ी हैं। और इनको तुम पूरा करने चले हो, ऊंट की तलाश कर रहे हो। एक दिन पाओगे, समय तो ढल गया, नाश्ता भी न हुआ, ऊंट भी न मिला। तब गौर से नीचे देखोगे तो पाओगे, छाया बिलकुल भी नहीं बन रही है। __वासना सिर्फ एक भुलावा है, एक दौड़ है। दौड़ते रहो, दौड़ाये रखती है। रुक जाओ, गौर से देखो, थम जाती है। समझ लो, विसर्जित हो जाती है। __ 'वासनारहित पुरुषसिंह को देखकर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं। या वे असमर्थ होकर उसकी चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं।' स्वातंत्र्यात परमं पदम् 223
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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