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• यही मेरा अर्थ था, जब मैंने तुमसे कहा, अनुगत हो जाती है वासना, अनुगत हो जाता है मन । तुम जागो तो जरा ! फिर मन को कब्जा नहीं करना पड़ता, मन खुद ही झुक जाता है । मन कहता है, हुकुम ! आज्ञा ! क्या कर लाऊं ? आप जो कहें। मन तुम्हारे साथ हो जाता है। मालिक आ जाये... ।
देखा? बच्चे क्लास में शोरगुल कर रहे हों, उछलकूद कर रहे हों और शिक्षक आ जाये, एकदम सन्नाटा हो जाता है, किताबें खुल जाती हैं। बच्चे किताबें पढ़ने लगे, जैसे अभी कुछ हो ही नहीं रहा था। एक क्षण पहले जो सब शोरगुल मचा था, सब खो गया । शिक्षक आ गया।
ऐसी ही घटना घटती है। नौकर बकवास कर रहे हों, शोरगुल मचा रहे हों और मालिक आ जाये, सब बकवास बंद हो जाती है। ऐसी ही घटना घटती है भीतर भी। अभी मन मालिक बना बैठा है, सिंहासन पर बैठा है। क्योंकि सिंहासन पर जिसको बैठना चाहिए वह बेहोश पड़ा है। जिसका सिंहासन है उसने दावा नहीं किया है। तो अभी नौकर-चाकर सिंहासन पर बैठे हैं और उनमें बड़ी कलह मच रही है। क्योंकि एक-दूसरे को खींचतान कर रहे हैं कि मुझे बैठने दो, कि मुझे बैठने दो। मन में हजार वासनायें हैं। सभी वासनायें कहती हैं, मुझे सिंहासन पर बैठने दो। मालिक के आते ही वे सब सिंहासन छोड़कर हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं, चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं।
पलायंते न शक्तास्ते सेवंते कृतचाटवः ।
या तो भाग ही जाती हैं ये छायायें, या फिर सेवा में रत हो जाती हैं। असली बात है, वासनारहित पुरुषसिंह |
लेकिन क्या करें? यह वासनारहित पुरुषसिंह कैसे पैदा हो ? यह सोया हुआ सिंह कैसे जागे ? कैसे हुंकार करे ? यह सिंहनाद कैसे हो ?
भगोड़ों से न होगा। क्योंकि भगोड़ों ने तो मान ही लिया, हम कमजोर हैं। जिसने मान लिया कमजोर हैं, वह कमजोर रह जायेगा। तुम्हारी मान्यता तुम्हारा जीवन बन जाती है। जैसा मानोगे वैसे हो जाओगे । बुद्ध ने कहा है, सोच-विचारकर मानना क्योंकि तुम मानोगे वही हो जाओगे ।
पुरानी बाइबल कहती है, एज ए मैन थिंकेथ— जैसा आदमी सोचता, बस वैसा ही हो जाता। सोच-समझकर मानना । इसलिए मैं कहता हूं, भागना मत। क्योंकि भागने में यह मान्यता है कि मैं कमजोर हूं, लड़ न सकूंगा। धन जीत लेगा, पद जीत लेगा, शरीर जीत लेगा। यह संसार बड़ा है, विराट है। यह जाल बहुत बलवान है, मैं बहुत कमजोर हूं। इसलिए तो आदमी भागता है। भागे कि तुमने अपने को कमजोर मान लिया। मान लिया कमजोर, हो गये कमजोर । फिर तुम्हारी धारणा ही तुम्हारा जीवन बन जायेगी । और गुफाओं में बैठकर तुम अपने को क्षमा न कर पाओगे। क्योंकि हमेशा यह बात खलेगी कि भाग आये । हमेशा यह बात चुभेगी कि जीत न पाये । हमेशा यह बात मन को काटेगी कि तुम डरपोक, कायर । साहस काफी न था ।
नहीं, लड़ो। घबड़ाओ मत। यह संसार तुमसे छोटा है। और यह मन तुम्हारा नौकर है । और ये वासनायें जितनी बड़ी तुमने समझ रखी हैं बड़ी नहीं हैं, सुबह लोमड़ी की बनी छाया है। दोपहर होते-होते छाया सिकुड़ जायेगी। समझ आते-आते, दोपहर आते-आते, प्रौढ़ता आते-आते यह छाया बड़ी छोटी हो जाती, विलीन हो जाती ।
यह पुरुषसिंह कैसे जागे ? पहली तो बात यह है कि भीतर छिपी हुई इस आत्मा के सिंहत्व को
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5