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पहले घटता है, तब परिधि पर घटता है । वह जो रोशनी तुम देखते हो लालटेन के आसपास, वह आसपास पहले नहीं घटती। पहले भीतर दीया जलता है, ज्योति जलती है। ज्योति में पहले घटती है, फिर बाहर फैलती है। अंतःकरण पहले बदलता है, फिर आचरण बदलता है। लेकिन आचरण में दिखाई पड़ता है। अंतःकरण तो महावीर के भीतर छिपा है। वह तो महावीर जानते हैं या महावीर जैसे जो होंगे वे जानते हैं। हमें लालटेन के भीतर जलती हुई ज्योति तो दिखाई नहीं पड़ती, बाहर पड़ता हुआ प्रकाश दिखाई पड़ता है। वह आचरण है, संयम है, नियम, व्रत, उसको हम पकड़ लेते हैं। वहीं चूक हो जाती।
क्रांति भीतर से बाहर की तरफ है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं । तुम कारण और कार्य की ठीक-ठीक बात समझ लेना। कहीं ऐसा न हो कि तुम कार्य को कारण समझ लो और कारण को कार्य समझ लो। तो फिर जीवन भर भटकोगे और कभी भी ठीक जगह न पहुंच पाओगे ।
'विषयरूपी बाघ को देखकर भयभीत हुआ मनुष्य शरण की खोज में शीघ्र ही चित्त निरोध और एकाग्रता की सिद्धि के लिए पहाड़ की गुफा में प्रवेश करता है । '
चित्त के निरोध के लिए, दबाने के लिए, चित्त को बांधने के लिए, व्यवस्था में लाने के लिए, चित्त को जंजीरें पहनाने के लिए, चित्त को कारागृह में धकाने के लिए, लेकिन कुछ इससे होता नहीं। चित्त बंध भी जाता है तो भी तुम मुक्त नहीं होते । चित्त बंध जाता है तो तुम भी बंध जाते हो, खयाल रखना। तुम जिसको संन्यासी कहते हो वह तुमसे ज्यादा बंधन में पड़ा है।
तुम जरा आंख खोलकर तो देखो। तुम जरा जाकर जैन मुनि को तो देखो। वह तुमसे ज्यादा बंधन में पड़ा है। तुम्हारी तो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता भी है। उसकी तो कोई स्वतंत्रता नहीं है । होना तो उल्टा चाहिए कि संन्यासी परम स्वतंत्र हो । स्वतंत्रता ही तो संन्यासी का स्वाद होना चाहिए। स्वतंत्रता ही तो संन्यासी की परिभाषा होनी चाहिए। और क्या परिभाषा होगी ? परम स्वातंत्र्य ! लेकिन तुम्हारे' तथाकथित साधु-मुनि स्वतंत्र हैं ? तुमसे ज्यादा परतंत्र हैं । तुम्हारे हाथों में परतंत्र हैं ।
जैन मुनि मुझे खबर भेजते हैं कि मिलने आना चाहते हैं लेकिन श्रावक नहीं आने देते। कहते हैं कि श्रावक नहीं आने देते। क्या करें ? हद हो गई! मुनि को श्रावक नहीं आने देते । तो गुलाम क हुआ, मालिक कौन हुआ? मुनि के पीछे श्रावक जायें यह तो समझ में आता है लेकिन मुनि श्रावक के पीछे जा रहे हैं। और डरते हैं, क्योंकि रोटी-रोजी उन पर निर्भर, मान-सम्मान उन पर निर्भर, पद-प्रतिष्ठा उन पर निर्भर । उनकी मर्यादा से जरा यहां-वहां हुए कि सब गई पद-मर्यादा, सब प्रतिष्ठा । वे जो कल तक तुम्हारे पैर छूते थे, तुम्हारा सिर काटने को उतारू हो जायेंगे ।
अनुयायी देखते रहते हैं कि अपना साधु, अपने महाराज व्यवस्था से चल रहे हैं न! आंख रखते हैं। कुछ भूल-चूक तो नहीं कर रहे हैं न! कुछ नियम व्रतभंग तो नहीं हो रहा ? सब तरफ से जांच-पड़ताल रखते हैं।
अनुयायी कारागृह बन जाते हैं। और इन्होंने चित्त निरोध किया; ये दोहरी झंझट में पड़ गये। एक तो उन्होंने अपने चित्त को बांध-बांधकर खुद को बांध लिया। क्योंकि इन्हें अभी पता ही नहीं कि चित्त के पार भी इनका कोई होना है। अभी आत्मा को तो इन्होंने जाना नहीं । आत्मा को जान लेते तो फिर चित्त को बांधने की जरूरत ही नहीं पड़ती। आत्मा के जानते ही चित्त बांधना नहीं पड़ता, चित्त अनुगत
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अष्टावक्र: महागीता भाग--5