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________________ बैठ गये होओगे। तुमने कहा कि बात कही पते की । अरे, मैं और भिखमंगे की तरह जाऊं ? अब रास्ता मिल गया। तुम तबसे ही अकड़कर चल रहे हो । कृपा करके रीढ़ जरा ठीक करो। यह मैंने कहा नहीं है। तुम सुन लेते हो, जरूरी नहीं है कि मैंने कहा हो। जो मैंने कहा है, जरूरी नहीं है कि तुमने सुना हो । इसलिए जल्दी मत करना निष्कर्ष लेने की। बहुत सोच-विचार कर लेना। बार-बार सुन लेना। सब तरह से जांच-परख कर लेना । अन्यथा तुम धोखा खा जाओगे । निर्बल के बल राम, हारे को हरिनाम । जो हार गया है, उसका ही हरिनाम । अब हारे से तुम क्या अर्थ लेते हो? हारे से यह मतलब नहीं है कि लोमड़ी उछली और अंगूरों का गुच्छा न पा सकी। उसने चारों तरफ देखा, कोई नहीं देख रहा है, चल पड़ी। एक खरगोश छिपा देख रहा था एक झाड़ी में । उसने कहा, मौसी, क्या मामला है ? उछलीं, पहुंच नहीं पाईं ? अब यह तो अहंकार को चोट लगती थी लोमड़ी को । लोमड़ी ने कहा, अरे कुछ भी नहीं । कुछ मामला नहीं । अंगूर खट्टे हैं, पहुंचने योग्य ही नहीं हैं। एक तो यह हार है। इस हार की बात नहीं कर रहा हूं। कि तुमने धन पाना चाहा और पहुंच नहीं सके तो तुमने कहा, मार दी लात । था ही नहीं धन तो लात क्या खाक मारी! लात मारने का हकदार तो वही है जिसके पास हो । इस विफलता को नहीं कह रहा हूं हारना कि होना तो चाहते थे राष्ट्रपति, न हो पाये म्युनिसिपल के मेंबर, सोचा कि अरे, कुछ नहीं रखा पद इत्यादि में । एकदम शास्त्र पढ़ने लगे, सत्संग करने लगे । कहने लगे कि इसमें कुछ नहीं रखा। यह सब दौड़-धाप व्यर्थ की बकवास है। मैं तो आध्यात्मिक हो गया। दौड़ते थे स्त्री के पीछे, नहीं पा सके स्त्री को क्योंकि और भी प्रतियोगी थे तो सोच लिया कि कुछ रखा नहीं। स्त्रियां हैं क्या? हड्डी - मांस-मज्जा का ढेर है; खून-कफ इत्यादि भरा पड़ा है; ऐसी-ऐसी बातें सोचने लगे। ऐसा सोचकर मन को समझा लिया, अंगूर खट्टे हैं । शास्त्रों में लिखी हैं ऐसी बातें। • ये पहले तरह के, इन हारे लोगों ने लिखी होंगी। इनके लिए नहीं कह रहा हूं हारे को हरिनाम । ये तो हार ही गये। ये तो हरिनाम भी क्या खाक लेंगे! इनको तो जीवन का स्वाद ही नहीं मिला। यह जो लोमड़ी चली गई है उचककर और नहीं पहुंच सकी अंगूरों तक, क्या तुम सोचते हो इसके मन में अंगूरों की याद न आयेगी ? खरगोश को धोखा दे दे। शायद खरगोश ने मान भी लिया हो। खरगोश भोले-भाले धार्मिक लोग! मान लिया हो । श्रद्धालु जन ! स्वीकार कर लिया हो कि ठीक कहती है, अंगूर खट्टे हैं। लेकिन खुद को कैसे धोखा देगी ? खुद तो जानती है उछली थी, पहुंच न सकी । स्वाद नहीं लिया तो खट्टे होने का पक्का कैसे हो सकता है ? रात सपने में फिर उछलेगी। ये अंगूर इसके मन में चक्कर काटेंगे। वही तो तुम्हारे साधु-संन्यासियों का होता है । स्त्री छोड़कर भाग गये, स्त्री चक्कर काट रही है। जितने सपने तुम्हारे साधु-संन्यासी स्त्रियों के देखते हैं उतना कोई नहीं देखता। गृहस्थ तो देखते ही नहीं। गृहस्थों को कहां फुरसत स्त्री का सपना देखने की ! दिन भर सताती है, रात तो छुटकारा मिले । जिनके पास धन है वह धन का सपना नहीं देखते, भिखमंगे देखते हैं। जिनके पास पद है वे पद मन तो मौसम-सा चंचल 203
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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