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________________ का सपना नहीं देखते, पदहीन देखते हैं। जो नहीं है उसका सपना देखा जाता है। जिसका स्वाद नहीं लिया उसकी आकांक्षा बनी रहती है। नहीं, इस तरह के हारे हुए लोगों के लिए नहीं कह रहा हूं। फिर किस तरह के हारे हुए लोग? एक और तरह की हार है। एक तो विफलता है जो विफलता से मिलती है। और एक ऐसी विफलता है जो सफलता से मिलती है। जब एक आदमी सफल हो जाता है; और अचानक पाता है सफलता तो मिल गई और हाथ में राख है। अंगूर पहुंच गये हाथ, तोड़ लिये, चख भी लिये, और कुछ भी न पाया। प्लास्टिक के अंगूर थे। अंगूर थे ही नहीं, धोखा था। धन पा लिया, ढेर लगा लिया और अचानक पाया, कुछ भी नहीं है। भीतर तो हम निर्धन के निर्धन रह गये हैं। बड़े पद पर बैठ गये और पाया कि क्या हुआ? हम तो वही के वही हैं। जमीन पर बैठे थे तो वही थे, कुर्सी पर बैठ गये तो वही हैं। कुछ फर्क तो हुआ नहीं। सारी दुनिया में नाम फैल गया, सब लोग जानने लगे, क्या हुआ? कुछ भी तो न मिला। यह वाहवाही मिली, लेकिन न इससे पेट भरता, न आत्मा भरती। यह सब ऊपर-ऊपर हो गया, भीतर तो हम खाली के खाली रह गये। ___एक विफलता है जो विफलता से मिलती है, उसकी मैं बात नहीं कर रहा। वह भी कोई विफलता है? वैसा विफल आदमी जब संन्यास ले लेता है तो वह नपुंसक का ब्रह्मचर्य है। नपुंसक कसम खा ले कि ब्रह्मचर्य ले लिया। वह ऐसा नपुंसक का ब्रह्मचर्य है। नहीं, उसकी मैं बात नहीं कर रहा। मैं कोई और ही बात कर रहा हूं। ऐसी विफलता जो सफलता से मिलती है। ऐसी निर्धनता जो धन के पाने पर पता चलती है। सब पा लिया और अचानक लगता है, सब असार। स्वाद ले लिया और पाया कि अंगूर खट्टे हैं। और खट्टे ही रहते हैं, पकते ही नहीं। इस संसार का कोई अंगूर कभी नहीं पकता, खट्टा ही रहता है। __इस स्वाद के बाद फिर सपना नहीं आता; फिर वासना नहीं जागती। इस स्वाद के बाद संसार छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। पहले हारेपन में छोड़ना पड़ता है, चेष्टा करनी पड़ती है। दूसरे हार में छूट जाता है बिना चेष्टा के, बिना प्रयत्न के, अकृत्रिम रूप से, सहज रूप से छूट जाता है। जान लिया, छूट गया। जानना ही क्रांति बन जाती है। ऐसे व्यक्ति को मैं कहता हूं : हारे को हरिनाम। और तब हरिनाम उठता है। इस हार में हरिनाम उठता है। अहंकार तो गिर गया हार में, संसार तो गिर गया हार में, अब उठता हरिनाम। ऐसा आदमी विषाद में नहीं लेता हरि का नाम। ऐसा आदमी संसार व्यर्थ हो गया इस आनंदभाव से डोलकर हरि का नाम लेता है। ऐसे आदमी का हरिनाम रसविमुग्धता से उठता है। देख लिया, बाहर कुछ भी नहीं है, अब भीतर लौटता है। और रस ही रस की धार बहती है। ___इसी को मैं सम्राट कहता हूं। लेकिन तुम्हारी कठिनाई भी मैं समझता हूं। तुम्हें विरोधाभास दिखाई पड़ता है क्योंकि तुम बुद्धि से सुनते हो। बुद्धि हर चीज में विरोधाभास देखती है। क्योंकि बुद्धि का उपाय ही हर चीज को टुकड़ों में तोड़ देना है। जैसे कांच के टुकड़े के प्रिज्म से गुजरकर किरण सात रंगों में टूट जाती है, ऐसे ही बुद्धि से हर चीज गुजरकर दो में टूट जाती है, द्वैत हो जाता है, दुई पैदा हो जाती है। बुद्धि से कोई भी चीज निकली तो दो पैदा हुए, तत्क्षण पैदा हुए। है तो एक, बुद्धि हर चीज को दो कर देती है। 204 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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