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केवल ध्यानी को संभव है। और जिसको ध्यान आता है वह तो काम करते भी खाली होता है; इस बात को समझ लेना। और जिसको ध्यान नहीं आता वह खाली बैठा भी सीढ़ियां चढ़ता-उतरता है। और जिसको ध्यान आता है वह काम करते हुए भी खाली होता है।
खाली होना चैतन्य का स्वभाव है। मन को सहारा चाहिए। 'जो हठपूर्वक चित्त का निरोध करता है उस अज्ञानी को चित्त का निरोध कहां?'
हठ कौन करेगा? आग्रह कौन करेगा? जबर्दस्ती कौन करेगा? हिंसा कौन करेगा अपने ही ऊपर? ये उपवास करनेवाले, जप-तप करनेवाले, शीर्षासन करनेवाले, धूनी लगाये बैठे हुए लोगयह कौन कर रहा है सब? यह मन ही कर रहा है।
अष्टावक्र के आधारभूत इस सत्र को खयाल में लेना क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बधं करोति वै।
कितना ही करो, कुछ भी करो, मूढ़ व्यक्ति चित्त के निरोध को उपलब्ध नहीं होता। इसलिए नहीं कि वह चित्त का निरोध नहीं करता, चित्त का निरोध करता है इसीलिए मुक्त नहीं होता। फिर मुक्ति का उपाय क्या है? __'स्वयं में रमण करनेवाले धीरपुरुष के लिए यह चित्त का निरोध स्वाभाविक है।'
चित्त का निरोध करना नहीं होता। आत्मरमण, आत्मरस में विभोरता—चित्त निरुद्ध हो जाता है। चित्त का निरोध सहज हो जाता है; अपने से हो जाता है। चित्त का निरोध परिणाम है।
तुमने भी खयाल किया होगा, जब भी तुम आनंदित होते हो–क्षण भर को ही सही-उसी क्षण चित्त का निरोध हो जाता है। रात देखा, आकाश में निकला चांद और क्षण भर को तुम आनंदित हो गये। उस क्षण में चित्त निरुद्ध हो जाता है। विचार बंद हो जाते हैं। आनंद में कहां विचार को सुविधा? जहां आनंद है वहां विचार कैसे बचेगा? विचार तो दख में ही होता है। __संगीत सुन रहे थे, डोल गये, मस्त हो गये, एक भीतरी शराब पैदा हो गई; तब कहां मन? तब क्षण भर को मन अपने आप अवरुद्ध हो गया।
इधर तुम मुझे सुन रहे हो...मुझसे अनेक लोग आते हैं, मैं उनसे पूछता हूं कि कौन-सा ध्यान सबसे ज्यादा ठीक लगता है ? वे कहते हैं, सुबह आपका बोलना। मैं कहता, बोलना! क्यों? वे कहते, बोलते-बोलते चित्त निरुद्ध हो जाता है। आपको सुनते-सुनते। आप बोलते उधर, इधर हम सुनते; मन ठहर जाता।
ठीक कहते हैं। अगर शांति से सुना, अगर मुझसे विवाद न रखा, संवाद किया, मेरे साथ चले, मेरे हाथ में हाथ ले लिया, बाधा न डाली, सहयोग किया, जिस दिशा में ले चला उस दिशा में चलने लगे, बहने लगे-चित्त निरुद्ध हो जाता है। एक क्षण को जब सुनना प्रगाढ़ होता है, तब कहां चित्त? कहां मन? सब खो गया। उस क्षण तुम आत्मा में होते हो।
इसलिए महावीर ने तो यहां तक कहा है कि अगर कोई सम्यक श्रवण को जान ले, ठीक-ठीक श्रावक हो जाये तो वहीं से मोक्ष का द्वार खुल जाता है। महावीर ने कहा है, चार तीर्थ हैं : श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी; जिनसे आदमी मोक्ष जाता है। लेकिन तुम खयाल रखना, साधुओं ने बड़े उल्टे अर्थ किये हैं इसके।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5