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अब महावीर कहते हैं, चार तीर्थ हैं। तीर्थ का अर्थ होता है, जिस घाट से उतरा जा सकता है। लेकिन साधुओं से पूछो, साधु यह नहीं कहते कि श्रावक मोक्ष जा सकता है । वे तो कहते हैं, साधु हुए बिना कैसे जाओगे? और महावीर ने चार तीर्थों का निर्माण किया । और श्रावक को साधु नमस्कार नहीं करता है, क्योंकि श्रावक को कैसे नमस्कार करे ? साधु श्रावक का नमस्कार लेता है और आशीर्वाद देता है। लेकिन नमस्कार नहीं करता । साधु अपने को ऊपर मानता है।
असलियत उल्टी है। मेरे देखे - और अगर कहीं तुम्हें महावीर मिल जायें तो उनसे भी पूछ लेना, वे भी तुमसे यही कहेंगे - साधु दोयम है, नंबर दो है; श्रावक प्रथम है। असल में अगर श्रावक पूरी तरह से सुनने में समर्थ हो गया तो साधु होने की जरूरत ही नहीं, श्रवण काफी है। अगर श्रवण पूरा न हो पाया तो फिर साधना की जरूरत है; इस बात को खयाल में लेना ।
साधु यानी साधना। कुछ करना पड़ेगा, सुनने से नहीं हो सका। इतनी बुद्धि न थी कि सुनने मात्र से हो जाता। सुनने के लिए प्रगाढ़ प्रतिभा चाहिए। जिनका सुनने से ही नहीं हो पाता उनको फिर कुछ कृत्य करना पड़ता है। उपवास करो, जप करो, तप करो, कुछ करो। जो कमी रह गई है बुद्धि की, वह कृत्य से पूरी करो । साधु नंबर दो है। परम अवस्था तो सुनकर ही पैदा हो जाती है। हां, जिसकी न हो पाये उसको फिर साधना भी करनी होती है।
महावीर उस पर भी दया करते हैं जिसको सुनकर न हो पाये। तो वे कहते हैं, तू कुछ कर। खयाल करना, अगर प्रगाढ़ प्रतिभा हो, बुद्धि निखार में हो, मलिन न हो, धूल-धवांस से भरी न हो, होशपूर्वक हो तो केवल सुनकर ही मोक्ष मिल जाता है। तुमने किसी सदगुरु को सुन लिया, हृदय भरकर सुन लिया, सब तरह अपने को हटाकर सुन लिया, उस सुनने के क्षण में ही मुक्त हो गये तुम। कुछ और करना न पड़ेगा। हां, अगर सुन न पाये, सुनने तो गये लेकिन बुद्धि में तुम्हारा जो कूड़ा-कचरा है वह भरा रहा; उसकी वजह से सुन न पाये तो फिर कुछ करना पड़ेगा । श्रावक प्रथम, साधु दोयम । होना भी ऐसा ही चाहिए। अगर तीस विद्यार्थियों की कक्षा में शिक्षक बोलता है तो तुम सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली किसे कहते हो ? जो सुनकर ही समझ गया। जो सुनकर नहीं समझा, फिर उसको तख्ते पर लिख-लिखकर, कर-करके समझाना पड़ता है। जो उससे भी नहीं समझा उसको घर पर ट्यूटर भी लगाना पड़ता है। जो उससे भी नहीं समझा वह परीक्षा में उत्तर चोरी करके ले जाता है । मगर प्रतिभा न हो तो कुछ भी काम नहीं आता । सब गड़बड़ हो जाता है।
मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था; एक परीक्षा चल रही थी, मैं निरीक्षक था। तो मैंने देखा, सब तो लिख रहे हैं, एक विद्यार्थी बैठा है, बड़ा बेचैन है, कुछ नहीं लिख रहा। तो मैं उसके पास गया, मैं चिंतित हो गया। मैंने पूछा कि क्या बात है, कुछ समझ में नहीं आता ? उत्तर पकड़ में नहीं आ रहे ? प्रश्न समझ में नहीं आ रहे ? क्या अड़चन है ? तू पसीना-पसीना हुआ जा रहा है, कुछ लिख भी नहीं रहा। उसने कहा, अब आपसे क्या छिपाना ! उत्तर तो मैं रखे हूं, मगर किस खीसे में किस प्रश्न का उत्तर है यह भूल गया। दोनों खीसे में रखे हैं उत्तर । प्रतिभा न हो तो खीसे में उत्तर हों तो भी क्या काम आता है !
रूस में उन्होंने बड़ा ठीक किया है, चोरी का उपाय खतम कर दिया है। विद्यार्थी किताबें ला सकते हैं। चोरी का कोई उपाय न रहा । विद्यार्थी परीक्षा में अपनी सारी किताबें ला सकते हैं। या बीच परीक्षा
दृश्य से द्रष्टा में छलांग
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