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________________ पककर, निखरकर प्रतीतियां जगती हैं। तो जाओ जीवन में, भागो मत! शास्त्र कहता है, खयाल में रखो। मगर शास्त्र को मान ही मत लेना; नहीं तो जीवन में जाने का कोई प्रयोजन न रह जायेगा। जरा-सी कोई कठिनाई आयेगी, तुम कहोगेः देखो शास्त्र में लिखा है कि जीवन विषवत। इतनी जल्दबाजी मत करना। जीवन में गहरे जाओ। जीवन के सब रंग परखो। जीवन बड़ा सतरंगा है। उसकी सब आवाजें सुनो। सब कोणों से जांचो-परखो, सब तरफ से पहचानो। जब तुम जीवन को पूरा देख लो, तब तुम भी जानोगे कि हां, जीवन विषवत है और उस जानने में ही तुम्हारा रूपांतरण हो जायेगा। अभी तुमने शास्त्र से पकड़ लिया, इससे क्या हुआ? तुमने जान लिया जीवन विषवत है, लेकिन इससे हुआ क्या? सुन लिया, पढ़ लिया, याद कर लिया, दोहराने लगे। हुआ क्या? क्या छूटा? क्या बदला? क्रोध वहीं का वहीं है। काम वहीं का वहीं है। लोभ वहीं का वहीं है। धन पर पकड़ वहीं की वहीं है। सब वहीं के वहीं हैं। और जीवन विषवत हो गया। और तुम वैसे के वैसे खड़े हो—बिना जरा से रूपांतरण के। नहीं, इतनी जल्दी मत करो। और फिर मैं तुमसे यह भी कहता हूं कि यह बात सच है कि जीवन विषवत है। एक और बात भी है जो तुमसे मैं कहता हूं, वह भी शास्त्रों में लिखी है कि जीवन अमृत है। वेद कहते हैं : 'अमृतस्य पुत्रः। तुम अमृत के पुत्र हो!' जीवन अमृत है। शास्त्रों में यह भी लिखा है कि जीवन प्रभु है, परमात्मा है। तो जरूर जीवन और जीवन में थोड़ा भेद है। एक जीवन है जो तुमने अंधे की तरह देखा वह विषवत है; और एक जीवन है तो तुम आंख खोलकर देखोगे, वह अमृत है। एक जीवन है जो तुमने माया, मोह, मद, मत्सर के पर्दे से देखा। और एक जीवन है जो तुम ध्यान और समाधि से देखोगे। जीवन तो वही है। एक जीवन है जो तुमने एक विकृति का चश्मा लगाकर देखा। जीवन तो वही है। चश्मा उतारकर देखोगे तो अमृत को पाओगे। इसी जीवन में परमात्मा को छुपे भी तो लोगों ने देखा। यहां पत्ते-पत्ते में वही है, ऐसा कहनेवाले वचन भी तो शास्त्र में हैं। यहां कण-कण में वही है। यहां सब तरफ वही है। पत्थर-पहाड़ उससे भरे हैं, कोई स्थान उससे खाली नहीं है। वही पास है, वही दूर है। यह भी तो शास्त्र में लिखा है। अब मजा है कि तुम शास्त्र में से भी वही चुन लेते हो, जो तुम चुनना चाहते हो। तुम्हारी बेईमानी हद्द की है। तुम शास्त्रों से भी वही कहलवा लेते हो जो तुम कहना चाहते हो। अभी तुमने पूरा जीवन कहां देखा! अभी कंकड़-पत्थर बीने हैं। जैसे कोई आदमी कुआं खोदता है तो पहले कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं, कूड़ा-कबाड़ हाथ लगता है, कचरा हाथ लगता है; फिर खोदता चला जाये तो धीरे-धीरे अच्छी मिट्टी हाथ लगती है; फिर खोदता चला जाये तो गीली मिट्टी हाथ लगती है; फिर खोदता चला जाये तो जल के स्रोत आ जाते हैं, गंदा जल हाथ लगता है; फिर खोदता चला जाये तो स्वच्छ जल हाथ आ जाता है। ऐसा ही जीवन है। खोदो! ___ तुमने कहाः ‘जीवन विषवत है।' अभी तुमने ऊपर-ऊपर खोदा है। यह कूड़ा-कर्कट जो लोग फेंक जाते हैं सड़कों पर, वही इकट्ठा है जमीन पर। उसी को खोद लिया, कहने लगेः 'जीवन विषवत है।' आ गये घर! जरा गहरे जाओ। 98 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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