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________________ उस फकीर ने कहा : यह है मेरा उत्तर कि अब मैं तो जाता हूं; तुम भी मेरे साथ आते हो ? मैं पीछे लौटने वाला नहीं हूं। सम्राट ने कहा, यह कैसे हो सकता है? मैं कैसे आ सकता हूं? पीछे राज्य है, पत्नी-बच्चे, - दौलत, सारा हिसाब-किताब है, मेरे बिना कैसे चलेगा? धन तो फकीर ने कहा : फर्क समझ में आया? मैं जा रहा हूं और तुम नहीं जा सकते। सम्राट को एकदम फिर श्रद्धा उमड़ी। एकदम पैर पर गिर पड़ा कि नहीं महाराज । मैं भी कैसा मूढ़ कि आपको छोड़े दे रहा हूं। आप जैसे हीरे को पाकर और गंवा रहा हूं। नहीं-नहीं महाराज, आप वापिस चलिए । उस फकीर ने कहा, मैं तो चल सकता हूं, लेकिन फिर सवाल उठ आयेगा। तू सोच ले । मैं तो अभी चल सकता हूं कि मुझे क्या फर्क कि इस तरफ गया कि इस तरफ गया ! तू सोच ले । सम्राट फिर संदिग्ध हो गया। फकीर ने कहा, बेहतर यही है, तेरे सुख-चैन के लिए यही बेहतर है कि मैं सीधा जाऊं, लौटूं न, तो ही तू फर्क समझ पायेगा। फर्क एक ही है संन्यासी और संसारी में कि संसारी लिप्त है, ग्रस्त है, पकड़ा हुआ है, जाल में बंधा है। संन्यासी भी वहीं है, लेकिन किसी भी क्षण जाल के बाहर हो सकता है। पीछे लौट कर नहीं देखेगा। संन्यासी वही है जो पीछे लौट कर नहीं देखता । जो हुआ, हुआ। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। जहां से हट गया, हट गया । संसारी ग्रसित हो जाता है, बंध जाता है। नहीं कि महल किसी को बांधते हैं; महल क्या बांधेंगे ? तुम्हारा मोह तुम्हें बांध लेता है। इतना ही भेद है । भेद बहुत बारीक है और भेद बहुत आंतरिक है। बाहर से भेद करने में मत पड़ना, अन्यथा संसार और संन्यास में तुम एक तरह का द्वंद्व खड़ा कर लोगे । वही द्वंद्व सम्राट के मन में था । वह सोचता था संन्यासी तो त्यागी और संसारी भोगी । नहीं, त्यागी - भोगी दोनों संसारी। संन्यासी तो साक्षी । त्याग में भी साक्षी रहता, भोग में भी साक्षी रहता । सुख में भी साक्षी रहता, दुख में भी । साक्षी स्वाद है संन्यास का । बुद्ध ने कहा है: तुम कहीं से मुझे चखो, मेरा स्वाद तुम एक ही पाओगे। जैसे कोई सागर को कहीं से भी चखे, खारा पाता है - ऐसे बुद्ध को तुम कहीं से भी चखो, बुद्धत्व, साक्षी, जागरूकता । “जो तृप्त हुआ ज्ञानीपुरुष भाव और अभाव से रहित है और निर्वासना है, वह लोक -दृष्टि में कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है।' भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः । वही है बुद्धपुरुष । वही है जागा हुआ। वही है ज्ञानी । जो भाव से भी रहित है, अभाव से भी रहित है तो उसका कोई पक्ष है न कोई विपक्ष है। न तो वह कहता है ऐसा ही हो और न वह कहता कि ऐसा होगा तो मैं दुखी हो जाऊंगा । न कोई भाव न कोई अभाव । भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः । और ऐसा भाव-अभाव में शून्य हो कर जो अपने स्वभाव में तृप्त हो गया, वही है बुद्धपुरुष । नैव किंचित कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता । ऐसा व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से तो सांसारिक ही मालूम होगा। वही कर रहा जो और कर रहे । साक्षी स्वाद है संन्यास का 379
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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