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________________ वैसा ही कर रहा जैसा और कर रहे। __ पूछा है किसी ने बोकोजू को कि तुम तो ज्ञानी हो, तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा: जब भूख लगती है भोजन कर लेता; जब नींद आती है तब सो जाता।। तो उस आदमी ने कहा, यह भी कोई साधना हुई? यह तो हम सभी करते हैं। जब भूख लगती है, खा लेते हैं; जब नींद आती, सो जाते। बोकोजू ने कहा कि नहीं, तुम जब भोजन करते हो तब और हजार काम भी मन में करते हो, मैं सिर्फ भोजन करता। और तुम जब सोते हो, तब तुम हजार सपने भी देखते हो; मैं सिर्फ सोता हूं। तुम जागते हो तो भी पूरे जागते नहीं; सोते हो तो भी पूरे सोते नहीं। तुम बंटे-बंटे हो, हजार खंडों में हो। तुम एक भीड़ हो। मैं भीड़ नहीं हूं। मेरा सोना शुद्ध है। तुम्हारा सोना भी अशुद्ध, जागने की तो बात ही छोड़ दो। क्या कह रहा है बोकोजू? बोकोजू यही कह रहा है कि लोक-दृष्टि में कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है; भीतर अकर्ता बना रहता है। कर्म की रेखा भी नहीं खिंचती। भीतर तो जानता रहता है, मैं सिर्फ द्रष्टा हूं। 'जब कभी जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है उसको करके धीरपुरुष सुख-पूर्वक रहता है और प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति में दुराग्रह नहीं रखता।' सुनते हो! प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः। उसका कोई आग्रह नहीं है, क्योंकि सभी आग्रह दुराग्रह हैं। सत्याग्रह तो कोई होता ही नहीं। आग्रह मात्र दुराग्रह है। जहां तुमने कहा ऐसा ही हो, वैसे ही चिंता तुमने बुला ली। जहां तुमने कहा ऐसा ही होना चाहिए, वहीं तुम अड़चन में पड़ गये। अगर वैसा न होगा तो दुखी होओगे। और वैसा होने का कोई पक्का नहीं है। यह जगत किसी की आकांक्षायें तृप्त नहीं करता। इस जगत ने कोई ठेका नहीं लिया है किसी की आकांक्षायें तप्त करने का। तम्हारी निजी आकांक्षायें इस परे विश्व की आकांक्षाओं से मेल खा जाती हैं कभी तो तृप्त हो जाती हैं; कभी मेल नहीं खाती हैं तो तृप्त नहीं होती। और अधिकतर तो मेल नहीं खाती हैं। क्योंकि इस विराट आयोजन का तुम्हें पता ही नहीं है। तुम तो अपना छोटा-छोटा खयाल लिए चल रहे हो। हमारी हालत वैसे ही है जैसे तुम्हारे चौके में घूमती हुई चींटियों की हालत है। वह शायद यही सोचती हैं कि वह जो भोजन इत्यादि गिर जाता है, उसी के लिए तुम भोजन बनाने का आयोजन करते हो। वे जो शक्कर के दाने नीचे पड़े रह जाते हैं फर्श पर, शायद उसी के लिए दूकान चलाते, दफ्तर जाते, रोटी-रोजी कमाते, भोजन बनाते, इतना सब आयोजन करते हो। ये सब आदमी जो घर में घूमते-फिरते दिखाई पड़ते हैं, ये सब इसी काम के लिए घूम रहे हैं कि चौके में कुछ शक्कर के दाने गिर जायें और चींटियां उनका मजा ले लें। हमारी हालत भी ऐसी है। यह जो विराट विश्व है, हम सोचते हैं हमारे लिए चल रहा है। हमारी इच्छा की तृप्ति के लिए चल रहा है। 380 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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