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कहा, बाल से धोखा मत खा, दिल अभी काला का काला है।
एक तो आवरण है जिसमें हम भीतर कुछ छिपाये हुए हैं। जो छिपाये हैं, वह विपरीत है। लेकिन ज्ञानीपुरुष को कोई चीज लिप्त नहीं करती, इसका अर्थ हुआ कि हर घड़ी में उसका जागरण अविच्छिन्न बना रहता है। वह संसार से गुजर जायेगा और यह संसार की कोई चीज उसे छुएगी नहीं। और ऐसा भी नहीं कि डरा-डरा गुजरेगा। ऐसा भी नहीं भागा-भागा गुजरेगा। ऐसा भी नहीं कि अपने को छिपा कर और कंबल ओढ़ कर गुजरेगा। नहीं, ऐसे गुजरेगा जैसे तुम गुजरते हो। लेकिन तुम बार-बार लिप्त हो जाओगे और वह लिप्त न होगा। बस वहीं भेद है।
एक फकीर को — जापान की पुरानी कथा है— एक सम्राट ने कहा कि आपको मैं सदा इस वृक्ष के नीचे बैठे देखता हूं, मेरे मन में बड़ी श्रद्धा जन्मती है। आपके प्रति मुझे बड़ा भाव पैदा होता है । जब भी मैं यहां से गुजरता हूं, कुछ घटता है। आप महल चलें। आप यहां न बैठें। आप मेरे मेहमान बनें। आप जैसे महापुरुष यहां वृक्ष के नीचे बैठे हैं ! धूप-धाप, वर्षा-गर्मी ! आप चलें।
वह फकीर उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, अच्छा । सम्राट थोड़ा झिझका, क्योंकि हमारी तो परिभाषा ही त्याग की यही होती है...। सम्राट ने भी सोचा होगा कि संन्यासी कहेगा, 'अरे कहां तू मुझे ले जाता है कचरे में, महल इत्यादि सब कूड़ा-कर्कट ! मैं संसारी नहीं हूं, मैं संन्यासी हूं।' तो सम्राट बिलकुल पैर में गिर गया होता। लेकिन यह संन्यासी खड़ा हो गया । यह कुछ अष्टावक्र की धारणा का आदमी रहा होगा। उसने कहा, ठीक, यहां नहीं तो वहां । तुझे दुखी क्यों करें ! चल ।
लेकिन सम्राट दुखी हो गया। उसने सोचा : यह कहां की झंझट ले ली सिर! यह तो कोई ऐसे ही भोगी दिखाई पड़ता है, बना-ठना बैठा था, रास्ता ही देख रहा था कि कोई बुला ले कि चल पड़ें। फंस गये इसके जाल में। लेकिन अब कह चुके तो एकदम इंकार भी नहीं कर सकते।
ले आया। उसे महल में रख दिया। सुंदरतम जो भवन था महल का, उसमें रख दिया। वह अच्छे से अच्छा भोजन करता, शानदार गद्दे -तकियों पर सोता । छः महीने बाद सम्राट ने उससे कहा, महाराज, अब मुझे एक बात बतायें कि अब मुझमें और आपमें भेद क्या ? अब तो हम एक ही जैसे हैं। बल्कि आपकी हालत मुझसे भी बेहतर है कि न कोई चिंता न फिक्र। हम धक्के खाते चौबीस घंटे, परेशान होते; आप मजा कर रहे ! यह तो खूब रही। फर्क क्या है ? अब मुझे फर्क बता दें। मेरे मन में यह बार-बार सवाल उठता है।
उस फकीर ने कहा : यह सवाल उसी वक्त उठ गया था जब मैं उठ कर खड़ा हुआ था झाड़ नीचे । इसका तेरे महल में आने से कोई संबंध नहीं है। वह तो जब मैं उठ कर खड़ा हो गया था और मैंने कहा चलो चलता हूं, तभी यह सवाल उठ गया था। ठीक किया, तूने इतनी देर क्यों लगाई ? छः महीने क्यों खराब किए? वहीं पूछ लेता। फर्क जानना चाहता है तो कल सुबह बताऊंगा। कल सुबह हम उठ कर गांव के बाहर चलेंगे।
सम्राट उसके साथ हो लिया, गांव के बाहर निकले। सूरज उग आया। सम्राट ने कहा, अब बता दें। उसने कहा, थोड़े और आगे चलें। दोपहर हो गई, साम्राज्य की सीमा आ गई; नदी पार होने लगे । सम्राट ने कहा, अब क्यों घसीटे जा रहे हैं? कहना हो तो कह दें। जो कहना है बता दें। कहां ले जा रहे हैं ?
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4