SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महात्मा है। महात्मा का अर्थ-जिसके जीवन में अब कोई आकांक्षा की दौड़ न रही; अब जो कुछ भी नहीं चाहता, परमात्मा को भी नहीं चाहता, ब्रह्म को भी नहीं चाहता, मोक्ष को भी नहीं चाहता—जो चाहता ही नहीं, चाह मात्र विसर्जित हो गई। अब तो जो है, उसमें रस-मुग्ध। जो है, उसके काव्य में डूबा। अब तो जो है उसमें परम तृप्त। अब तो जैसा है उसमें ही महोत्सव को उपलब्ध। 'संपूर्ण संकल्पों के अंत होने पर विश्रांत हुए महात्मा के लिए कहां मोह!' अब किसको कहे मेरा? मैं ही न बचा। इसे समझो।। संकल्पों और विकल्पों के जोड़ का नाम ही मैं है। सोचो एक धारणा : अगर कोई तुमसे तुम्हारा अतीत छीन ले तो तुम यह बता न सकोगे कि तुम कौन हो। क्योंकि अतीत के छिनते ही तुम बता न सकोगे, कौन तुम्हारा पिता, कौन तुम्हारी मां, किस कुल से आते, किस देश के वासी, किस भाषा को बोलते, हिंदू हो कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन, ब्राह्मण कि शूद्र, कुछ भी न बता सकोगे। अगर कोई एक झटके में तुम्हारा अतीत छीन ले तो तुम्हारे पास 'मैं' की कोई परिभाषा बचेगी? एकदम तुम पाओगे परिभाषा खो गई। मेरे एक मित्र हैं, डाक्टर हैं। ट्रेन से जाते थे, भीड़ थी ट्रेन में, दरवाजे पर खड़े थे। थोड़े झक्की स्वभाव के हैं। भूल गये होंगे कि डंडे को पकड़े रहना है जोर से। खड़े-खड़े कुछ विचार में खो गए होंगे, गिर पड़े। ट्रेन से बाहर गिर गये, सिर में बड़ी चोट लगी। ऐसे ऊपर से कोई खास चोट नहीं लगी। ऊपर से कोई घाव नहीं हुआ। कोई हड्डी-पसली नहीं टूटी। लेकिन स्मृति खो गई। याददाश्त खो गई। मस्तिष्क तो यंत्र है, बड़ा बारीक यंत्र है-कुछ चोट भीतर पहुंच गयी और स्मृति के धागे टूट गये। बस भूल गये। वे यह भी न बता सके कि उनका नाम क्या है। वे यह भी न बता सके कि वे कहां से आ रहे हैं। उनकी टिकिट वगैरह देख कर उनको गांव वापिस भेजा गया। तीन वर्ष तक उन्हें कुछ भी याद न रही। मेरे साथ पढ़े, बचपन से मेरे दोस्त, मैं उन्हें देखने गया। वे मेरी तरफ देखते रहे। वे मुझे पहचान ही न सके। सब खो गया। वे अपनी पत्नी न पहचान सके, अपने बाप को न पहचान सके। फिर से अब स से सीखना शुरू किया। अगर तुम्हारी स्मृति हट जाये तो तुम कौन हो? तुम्हारा मैं तुम्हारी स्मृति का संग्रहीभूत सार-संचय है। और अगर तुम्हारे भविष्य की योजनायें तुमसे छूट जायें, तब तो तुम बिलकुल ही खो गये। तुम्हारा अतीत भी तुम्हारे 'मैं' को बनाता है। तुम कहते हो, मैं फलां का बेटा, इतना धन मेरे पास, मैं ब्राह्मण। और आगे की योजना-कल्पना भी तुम्हें बनाती है। तुम कहते हो, आज नहीं कल चीफ मिनिस्टर होने वाला, कि प्राइम मिनिस्टर होने वाला, कि जरा ठहरो, देखो करोड़ों रुपये कमा देने वाला हूं। तो तुम्हारा अतीत भी तुम्हारे 'मैं' को बनाता है और तुम्हारा भविष्य भी तुम्हारे 'मैं' को बनाता है। इन दोनों के बीच में 'मैं' खड़ा है। ये दो बैसाखियां तुम्हारे 'मैं' के पैर हैं। ये दोनों गिर जायें, तुम्हारा 'मैं' गिर गया। संकल्प-विकल्प के अंत हो जाने पर व्यक्ति की चेतना परम विश्राम में पहुंच जाती है। न तो पीछे का कोई धक्का रहता है, न आगे का कोई खिंचाव रहता है। तुम वर्तमान क्षण में रह जाते शांत, विश्रांति को उपलब्ध। ऐसे महात्मा के लिए कहां मोह है और कहां संसार! क्या तुम समझते हो ऐसे महात्मा के लिए ये सब वृक्ष, चांद-तारे, आकाश, बादल खो जायेंगे? 366 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy