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________________ सकता था। वह तो भ्रांति ही थी। भगोड़ापन, अष्टावक्र की शिक्षा नहीं है। निश्चित ही मेरी तो बिलकुल नहीं है। आज के सूत्र । तुम्हें साफ करेंगे। संसार में रहते हुए जागरण की कला ही धर्म है। तब तुम इस भांति हो जाते हो जैसे जल में कमल। होते हो जल में, लेकिन जल छूता नहीं। मजा भी तभी है। गरिमा भी तभी, गौरव भी तभी है। महिमा भी तभी है, जब तुम भीड़ में खड़े और अकेले हो जाओ। बाजार के शोरगुल में और ध्यान के फल लग जायें। जहां सब व्याघात हैं और सब विक्षेप हैं, वहां तुम्हारे भीतर समाधि की सुगंध आ जाये। क्योंकि हिमालय पर तो डर है, तुम अगर चले जाओ तो हिमालय की शांति धोखा दे सकती है। हिमालय शांत है, निश्चित शांत है। वहां बैठे-बैठे तुम भी शांत हो जाओगे, लेकिन इसका पक्का पता नहीं चलेगा कि तुम शांत हुए कि हिमालय की शांति के कारण तुम शांत मालूम हुए। यह वातावरण के कारण है शांति या तुम्हारा मन बदला, इसका पता न चलेगा। यह तो पता तभी चलेगा जब तुम बाजार में वापिस आओगे। _ और मैं तुमसे कहता हूं : हिमालय पर जो उलझ जाता है वह फिर बाजार में आने में डरने लगता है। डरता है इसलिए कि बाजार में आया कि खोया। और बाजार में आता है, तभी परीक्षा है, तभी कसौटी है। क्योंकि यहीं पता चलेगा। जहां खोने की सुविधा हो वहां न खोये, तो ही कुछ पाया। जहां खोने की सुविधा ही न हो वहां अगर न खोये तो कुछ भी नहीं पाया। अगर हिमालय के एकांत में अपनी गुफा में बैठ कर तुम्हें क्रोध न आये तो कुछ मूल्य है इसका? कोई गाली दे तब पता चलता कि क्रोध आया या नहीं। कोई गाली ही नहीं दे रहा है, तुम अपनी गुफा में बैठे हो, कोई उकसा नहीं रहा है, कोई भड़का नहीं रहा है, कोई उत्तेजना नहीं है, कोई शोरगुल नहीं है, कोई उपद्रव नहीं है-ऐसी घड़ी में अगर शांति लगने लगे तो यह शांति उधार है। यह हिमालय की शांति है जो तुममें झलकने लगी। यह तुम्हारी नहीं! तुम्हारी शांति की कसौटी तो बाजार में है। इसलिए अष्टावक्र भागने के पक्ष में नहीं हैं, न मैं हूं; जागने के पक्ष में जरूर हैं। भागना कायरता है। भागने में भय है। और भय से कहां विजय है! यह सूत्र समझो। पहला सूत्र: क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता। सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।। 'संपूर्ण संकल्पों के अंत होने पर विश्रांत हुए महात्मा के लिए कहां मोह है, कहां संसार है, कहां । ध्यान है, कहां मुक्ति है?' सुनो यह अपूर्व वचन। अष्टावक्र कहते हैं : जिसके संपूर्ण संकल्पों का अंत आ गया; जिसके मन में अब संकल्प-विकल्प नहीं उठते; जिसके मन में अब क्या हो क्या न हो, इस तरह के कोई सपने जाल नहीं बुनते; जिसके मन में भविष्य की कोई धारणा नहीं पैदा होती; जिसकी कल्पना शांत हो गई है और जिसकी स्मति भी सो गई: जो सिर्फ वर्तमान में जीता है। तारणासिक पतमान म जाता है। सर्व संकल्प सीमायां विश्रांतस्य महात्मनः। और इन सब संकल्पों का जहां सीमांत आ गया है, वहां जो विश्राम को उपलब्ध हो गया वही साक्षी स्वाद है संन्यास का 365
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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