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________________ न आये। और आज मैं जानता हूं कि बयालीस साल तक तुमने एक शब्द नहीं बोला। किं विजानाति किं ब्रूते किं करोति। तुमने कुछ भी नहीं किया। जब अहंकार चला जाता है तो सब क्रियाएं चली जाती हैं। क्रिया मात्र अहंकार की है। जानना भी क्रिया है, बोलना भी क्रिया है, चलना भी क्रिया है, करना भी क्रिया है। सब चला जाता है। तुम्हें भी अड़चन होगी, अगर मैं तुमसे कहं कि मैं एक शब्द भी नहीं बोला। अभी बोल ही रहा । और अगर कह कि एक शब्द भी नहीं बोल रहा है तो तम्हें भी अडचन होगी। तम्हारी अडचन भी मैं समझता हूं। क्योंकि तुमने अब तक जो भी किया है वह 'किया' है; तुमने जीवन में कुछ होने नहीं दिया। ये शब्द बोले जा रहे हैं; इन शब्दों को कोई बोल नहीं रहा है। जैसे वृक्षों पर पत्ते लगते हैं और वृक्षों पर फूल लगते हैं, ऐसे ये शब्द भी लग रहे हैं। इन्हें कोई लगा नहीं रहा। इनके पीछे कोई चेष्टा नहीं है, कोई प्रयास नहीं है, कोई आग्रह नहीं है। ये न लगें तो कुछ फर्क न पड़ेगा। ये लगते हैं तो कुछ फर्क नहीं पड़ता है। अचानक बोलते-बोलते अगर बीच में ही मैं रुक जाऊं तो कुछ फर्क न पड़ेगा। अगर शब्द न आया तो न आया। ___ कूलरिज मरा-अंग्रेजी का महाकवि-तो हजारों अधूरी कविताएं छोड़ कर मरा। मरने के पहले उसके एक मित्र ने पूछा कि इतनी कविताएं अधूरी छोड़े जा रहे हो! इन्हें पूरा क्यों न किया? तो कूलरिज ने कहा, मैं कौन था पूरा करने वाला! जितनी आयी उतनी आयी; उससे ज्यादा नहीं आयी तो नहीं आयी। तीन पंक्तियां उतरीं तो मैंने तीन पंक्तियां लिख दी। मैं तो उपकरण था। चौथी पंक्ति नहीं आयी। पूरी चौपाई भी न बनी तो मैं क्या कर सकता था? जितना आया, आया। केवल सात कविताएं पूरी करके कूलरिज ने जीवन भर में...सात कविताएं। लेकिन सात कविताओं के आधार पर महाकवि है। सात-सात हजार कविताएं लिखने वाले लोग भी महाकवि नहीं हैं। कुछ बात है कूलरिज की कविता में, कुछ पार की बात है, कुछ बड़े दूर की ध्वनि है। कोई अज्ञात उतरा है। कूलरिज नहीं बोला; परमात्मा बोला है। यही अर्थ है जब हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, या हम कहते हैं कुरान उतरी। इसका मतलब समझ लेना। हिंदू-मुसलमान क्या दावे करते हैं, उससे मुझे मतलब नहीं है। उनके दावे का मैं समर्थन भी नहीं कर रहा हूं। लेकिन इसका अर्थ यही है। कुरान उतरी। मुहम्मद ने खुद बनायी नहीं; उतरता हुआ पाया। जब पहली दफा कुरान मुहम्मद पर उतरी तो वे बहुत घबरा गये। क्योंकि वे तो गैर-पढ़े-लिखे आदमी थे। उन्होंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा अपूर्व काव्य, और उतर आयेगा। इसकी कभी कल्पना भी न की थी, सपना भी न देखा था। यह तो उनके हिसाब-किताब के बाहर था। यह तो ऐसा ही समझो कि तुमने जिंदगी भर मूर्ति न बनायी हो और एक दिन अचानक तुम पाओ कि तुमने छैनी उठा ली है, हथौड़ी उठा ली है और तुम संगमरमर खराद रहे हो, संगमरमर को छैनी से काट रहे हो और तुम चौंको कि मैं यह क्या कर रहा हूं, मैं कोई मूर्तिकार नहीं हूं, मैंने कभी सोचा भी नहीं! मगर विवश, कोई अदम्य तुम्हें खींचे ले जाये और तम न केवल इतना पाओ कि मर्ति खोद रहे हो, तुम एक जगत की श्रेष्ठतम मूर्ति खोद दो, तो क्या तुम यह कह सकोगे कि मैंने खोदी? तुमने न तो कभी सीखा न तुमने सपना देखा। तुम्हारे मन में मूर्तियां तैरती ही न थीं। 314 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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