SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ T दो पांच जोड़ रहे थे, दो और दो चार जोड़ लिये । दो और दो चार ही थे। जब तुम पांच जोड़ते थे तब भी चार ही थे। तुम पचास जोड़ो तो भी चार ही रहेंगे। तुम कुछ भी जोड़ो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम न भी जोड़ो तो भी दो और दो चार ही हैं । स्वरूपादानमात्रतः । और जिसने अब अपने स्वरूप को अंगीकार कर लिया; जो था उसे स्वीकार कर लिया, जो था उसकी स्मृति से भर गया। वीतशोका विराजते निरावरण दृष्टयः । वह सारे दुख के पार हो जाता है। और एक ऐसे सिंहासन पर विराजमान हो जाता है जहां निर्मल दृष्टि है; जहां सब निर्मल है, निर्विकार है। ऐसी निर्विकार दृष्टि वाला व्यक्ति ही शोभायमान है। हमने इस देश में ऐसे व्यक्ति की ही महिमा गायी है। धन की नहीं, पद की नहीं, सम्राटों की नहीं, साम्राज्यों की नहीं। हम तो एक ही साम्राज्य पर भरोसा करते हैं, वह है भीतर का, स्वभाव का, स्वच्छंद, स्वयं के गीत का। ऐसा ही व्यक्ति केवल शोभायमान है। वीतशोका विराजते निरावरणदृष्टयः । जिसकी दृष्टि निरावरण हो गयी। जिसकी आंख पर कोई परदा न रहा, कोई आवरण न रहा। जो देखने लगा सीधा-सीधा । जिसकी देखने की कोई आकांक्षा न रही कि ऐसा देखूं, कि ऐसा हो; जो सीधा-सीधा देखने लगा। ऐसी निरावरण दृष्टि को उपलब्ध व्यक्ति ही एकमात्र जगत में शोभायमान है। ‘समस्त जगत कल्पना मात्र है और आत्मा मुक्त और सनातन है, ऐसा जानकर धीरपुरुष बालकों की भांति क्या चेष्टा करता है!' यह बड़ा अदभुत सूत्र - आखिरी सूत्र आज के लिए । समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तः सनातनः । इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् । । सारा जगत कल्पना मात्र है, ऐसा जिसने जाना, ऐसा जानते ही दूसरी बात भी जान ली साथ ही साथ, युगपत, कि आत्मा सनातन और मुक्त है। जब तक संसार सत्य है, आत्मा बंधन में मालूम होती है । जैसे ही संसार मालूम हुआ मिथ्या - आत्मा मुक्त है। संसार की भ्रांति ही बंधन है। बंधन वास्तविक नहीं है। तुमने मान रखा है कि बंधन है, इसलिए है । तुम छोड़ दो मान्यता, छूट जाता है। 'ऐसा जान कर धीरपुरुष क्या बालकों की भांति चेष्टा करता है !' बच्चे अभ्यास करते हैं। भाषा सीखनी है तो अभ्यास करना पड़ता है । भाषा भूलनी हो तो भी क्या अभ्यास करना पड़ेगा ? कुछ कमाना हो तो अभ्यास करना पड़ता है। कुछ गंवाना हो तो अभ्यास करना पड़ेगा ? रामकृष्ण के पास एक आदमी ने पांच सौ मोहरें ला कर रख दीं, कहा कि आप को दान करना है। रामकृष्ण ने कहा : तू एक काम कर, दान तो हम ले लिये, हमने स्वीकार कर लिया; अब हमारी तरफ से इनको गंगा में फेंक आ । वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ा । इंकार ही कर देते तो अपने घर तो ले जाता; यह और उपद्रव कर दिया। स्वीकार भी कर लिया और अब कहते हैं: गंगा में फेंक आ । परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है 277
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy