________________
और अब कहते हैं मेरी तरफ से, इसलिए अब मेरा कोई वश भी नहीं है। वह गया। बड़ी देर लगा दी। तो रामकृष्ण ने कहा: पता लगाओ, गया कि नहीं गया? कहां है? कितनी देर लगा दी? इतनी देर की जरूरत क्या?
कोई गया तो देखा, उसने वहां भीड़ इकट्ठी कर रखी थी। वह एक-एक अशर्फी को पटकता सीढ़ी पर, बजाता, खनखनाता, फिर फेंकता और गिनती करता। तो देर लग रही थी।
रामकृष्ण भागे गये और कहाः पागल, जब कमाना हो तो गिनती करनी पड़ती है; जब फेंकना है तो गिनती किसलिए कर रहा है? यह खनखना किसलिए रहा है? अब तुझे क्या फिक्र पड़ी है कि सही है कि खोटी है, कि असली है कि नकली है। कमाते वक्त की तेरी आदत है। मगर गंवाने में? फेंक, इकट्ठा फेंक! __ अभ्यास करना पड़ता है, जब हम कमाते हैं। भोग का अभ्यास करना पड़ता है; त्याग का अभ्यास नहीं करना पड़ता। त्याग तो एक क्षण में घट जाता है। भोग तो जन्मों-जन्मों में नहीं घटता और त्याग एक क्षण में घट जाता है। त्याग के लिए समय की जरूरत ही नहीं है। ज्ञान के लिए अभ्यास की जरूरत नहीं है, क्योंकि ज्ञान तुम्हारा स्वभाव है। अभ्यास तो उसका करना पड़ता है जो स्वभाव नहीं है। बच्चा पैदा होता है तो कोई भाषा ले कर तो पैदा नहीं होता। न जर्मन, न जापानी, न हिंदी, न मराठी, न गुजराती-कोई भाषा तो ले कर पैदा नहीं होता। बच्चा तो बिना भाषा के आता है। तो भाषा स्वभाव नहीं है। लेकिन मौन तो स्वभाव है। मौन तो लेकर सभी बच्चे आते हैं। जापान में पैदा हों कि चीन में, कि जर्मनी में, कि महाराष्ट्र में, कि गुजरात में, क्या फर्क पड़ता है? मौन तो सभी बच्चे ले कर आते हैं। तो जिस दिन तम मौन होना चाहो, क्या मौन का अभ्यास करना पडेगा?
यह सूत्र बड़ा अदभुत है। यह यह कह रहा है कि जो स्वाभाविक है, उसका अभ्यास नहीं करना पड़ता। तुम अगर मौन होना चाहते हो, वस्तुतः होना चाहते हो, इसी क्षण हो सकते हो। भाषा सीखी हुई है, मौन तो अनसीखा हुआ है; तुम्हारा स्वभाव है।
अष्टावक्र की इस सारी महागीता का सार-सूत्र इतना है कि जो तुम्हें पाना है वह मिला हुआ है। तुम बस जागो और मालिक हो जाओ। दावा करो और मालिक हो जाओ। परमात्मा तुम्हारा स्वभावसिद्ध अधिकार है।
हरि ॐ तत्सत्!
278
अष्टावक्र: महागीता भाग-4