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फिक्र करते हैं? सुना तुमने, कहीं मूढ़ और गिनती की फिक्र करें? मूढ़ का मतलब ही होता है जिसको गिनती नहीं आती। नौ तक जिसको आती है वह कोई मूढ़ है? उसको तो सारी गिनती आ गयी। नहीं, दस पंडित व्यक्तियों ने नदी पार की। बड़े ज्ञानी थे, वेद के ज्ञाता थे। कोई चतुर्वेदी, कोई त्रिवेदी, कोई द्विवेदी। बड़ी खोपड़ी में गिनती भरी थी। सारे सिद्धांत, विचार, सब; उनके मालिक थेवे। उन्हें खयाल आया, पंडित थे, सोचा कि कहीं कोई खो तो नहीं गया। और पंडित हों तो सीधे रास्ते तो जाते नहीं। पंडित तो तिरछा जाता है। वह तो कान भी पकड़ता है तो घूम कर, उल्टी तरफ से पकड़ता है। तो उन्होंने गिनती की। और स्वभावतः जैसा कि पंडित करेगा, वह अपने को छोड़ जाता है। वह दूसरे को सलाह देता है, अपने को छोड़ जाता है। वह दूसरे को ज्ञान बांटता है, खुद अज्ञानी रह जाता है। वह सारी दुनिया को बदलने में लगा रहता है, खुद नहीं बदलता है; जैसा कि पंडित की आदत होती है। उसने गिनती की। नौ तक तो गिन लिया. दसवां चक गया। रोने लगे।
वहां से कोई सीधा-साधा आदमी आता था। कहता हं सीधा-साधा; न पंडित, न मढ़। क्योंकि मूढ़ हो तो गिनती नहीं जानता है, पंडित हो तो गिनती गड़बड़ा जाती है। सीधा-साधा, सरल चित्त आदमी। न इतना मूढ़ कि गिनती न कर सके, न इतना पंडित कि गिनती गड़बड़ कर ले। दोनों अतियों से मुक्त, कोई बुद्धपुरुष, मध्य में ठहरा हुआ, दोनों अतियों के पार, मज्झिम निकाय पर, ठीक संतुलित, न पंडित न मूढ़। ये दोनों तो असंतुलन हैं। मूढ़ बिलकुल नहीं जानता है और पंडितं जरूरत से ज्यादा जान लेता है। दोनों बीमारियां हैं। एक बायें झुक गया, एक दायें। दोनों गिरेंगे। ठीक तो वही है जो रस्सी पर बीच में सम्हला है। कोई सीधा-सीधा आदमी आता था। उसे देख कर बड़ी हंसी आयी कि पागल, क्यों रोते हो? और यह देख कर और भी हंसी आयी कि सब बड़े पंडित हैं।
इतना फर्क कहानी में कर देना चाहता हूं। कहानी महत्वपूर्ण है।
और तुम्हारा गुरु इससे ज्यादा कुछ भी नहीं कर सकता कि तुम्हारी छाती पर हाथ रखेकर कहे कि दसवां तू है! बस इससे ज्यादा गुरु और क्या कर सकता है ? खोया नहीं है किसी को। जिसे तू खोज रहा है, वह तू है। तत्वमसि श्वेतकेतु।
__ 'मोह मात्र के निवृत्त होने पर और अपने स्वरूप के ग्रहण मात्र से वीतशोक और निरावृत्त दृष्टिवाले पुरुष शोभायमान होते हैं।'
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः। वीतशोका विराजते निरावरण दृष्टयः।।
जिसका यह सपनों में मोह छूट गया। जिसने ये मन में उठती रागात्मक वृत्तियों को जाग कर देख लिया और इनका विचार छोड़ दिया और जो चीजों को सीधा-सीधा देखने लगा।
व्यामोहमात्रविरतौ...।
मोहमात्र जिसका निवृत्त हुआ। जो अब ऐसा नहीं कहता है कि यह मेरा है और यह मेरा नहीं है। क्या मेरा है, और क्या तेरा है?
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।
और जिसने अपने स्वरूप को ग्रहण कर लिया। शब्द का अर्थ समझना। स्वरूप को पाना थोड़े ही है-है ही। लेकिन तुम भूल गये हो। भूल को सुधार लिया। दो और
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4